शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

मालियों को न परवाह इसकी,.........

वो बगीचा जहाॅ फूल रसगंध थी,
आज वीरान दिखती है सब क्यारियाॅं।

मालियों को न परवाह इसकी,
सभी दिख रहे कर रहे और तैयारियाॅ।

फूल खिलते जहाॅ थे हैं कांटे उगे
थी बहारे जहाॅ, आज पतझार है।

लोग कहते तो है ये बगीचा है पर
दिखता इससे किसी को नहीं प्यार है।

बदली तासीर आबो हवा इस तरह
फूल मुरझाये कांटे बढ़े हर तरफ।

ज्यों दवा की कि फिर पौध विकसे नई
और बढ़ती गई रोज बीमारियाॅं।

इक बवंडर उठा छा धुंधलका गया
धूल से भर गया पूर्ण वातावरण।

आदमी व्यस्त अपनी संजोने में है,
पड़ी फीकी मधुर भावना की किरण।

आचरण धर्म ईमान सब खो गये
हाथ गठरी संभाले हुए दाम की।

इस अंधेरे में खुद गुम गया आदमी
सब समेटे हुए व्यर्थ बेकारियाॅ।

नीति कोपल सिसकती है बंदिनी बनी
हाल बेखबर राज दरबार मे।

दे सहारा उठाये संवारे उसे
आज दिखता नहीं कोई संसार में।

जिंदगी में उमस, सांस में है कसक
सारी जनता परेषान है हाल से।

फिर से मिट्टी अगर बन न पाई नई
कैसें संभलेगी उजडी ये फुलवारियाॅं।


प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर

संतुलन चाहिए

संतुलन चाहिए

जग में अपनी औ‘ सबकी खुषी के लिये,
स्वार्थ परमार्थ में संतुलन चाहिए।

खोज पाने सही हल किसी प्रष्न का,
परिस्थिति का सही आंकलन चाहिये।

आये बढ़ते निरंतर मनुज के चरण
किंतु अपने से आगे न उठ पाया मन।

सारी दुनिया इसी से परेषान है
कई के आॅसुओ से भरे है नयन।

सारी दुनिया में दुख के शमन के लिए
पूर्व-पष्चिम के मन का मिलन चाहिए।

आज आॅगन धरा का बना है गगन
नई आषाओं से दिखते चेहरे मगन।

भूल छोटी सी ही पर किसी भी तरफ
डर है कर सकती जग की खुषी का हरण।

एक आॅगन में सम्मिलित जषन के लिये
भावनाओं का एकीकरण चाहिए।

मन की बातो का मुॅह ने किया कम कथन
ये है इस सभ्य दुनियाॅ का प्रचलित चलन।

हाथ तो सबने मिलकर मिलाये मगर
यह बताना कठिन कितने मिल पाये मन।

विश्व में मुक्त वातावरण के लिए
पारदर्षी खुला आचरण चाहिए।

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

शासक वर्ग जहाॅ नैतिक आचरणवान नहीं होगा

शासक वर्ग जहाॅ नैतिक आचरणवान नहीं होगा
जनता से नैतिकता की आषा करना है धोखा।

देष गर्त में दुराचरण के नित गिरता जाता है,
आषा के आगे तम नित गहरा घिरता जाता है।

क्या भविष्य होगा भारत का है सब ओर उदासी,
जन अषांति बन क्रांति न कूदे उष्ण रक्त की प्यासी।

अभी समय है पथ पर आओं भूले भटके राही,
स्वार्थ सिद्धि हित नहीं देष हित बनो सबल सहभागी।

नहीं चाहिए रक्त धरा को, तुम दो इसे पसीना,
सुलभ हो सके हर जन को खुद और देष हित जीना।

मानव की सभ्यता बढ़ी है नहीं स्वार्थ के बल पर,
आदि काल से इस अणुयुग तक श्रमरथ पर ही चलकर।

स्वार्थ त्याग कर जो श्रम करते वें ही कुछ पाते है,
भूमिगर्भ से हीरे, सागर से मोती लाते है।

त्याग राष्ट्र का स्वास्थ्य शक्ति है, स्वार्थ बड़ी बीमारी,
सदा स्वार्थ से ही उठती है भारी अड़चन सारी।

अगर देष को अपने है उन्नत समर्थ बनाना,
स्वार्थ, त्याग, उत्तम, चरित्र सबको होगें अपनाना।



प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252

बढते नये घपले - घोटाले

बढते नये घपले - घोटाले

सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले
धन के लालच में स्वार्थो ने, सबके मन मैले कर डाले
क्या रोक सके है बांॅध कभी, सरिता के प्रबल प्रवाहो को ?
कानून भला क्या बदल सके हैं, चंचल मन की राहो को ?
उठते हैं मन में ज्वार सदा, हर क्षण नये नये सुख पाने को
जल्दी से जल्दी बिना परिश्रम, अधिकाधिक हथियाने को
इससे ही लुक छिप कर, तोडे जाते गोदामों के ताले
सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले

केवल सच्ची धार्मिक षिक्षा, से ही संस्कारित होता मन
निस्वार्थ प्रेम की भावभूमि पर, ही मिटती मन की अनबन
घर में बचपन की षिक्षा से, होता चरित्र का संपादन
पर राजनीति ने आज किया, धार्मिक षिक्षा का निष्कासन
इससे उदण्ड हुये मन ने, की चोरी औ‘ डाके डाले
सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले


जब तक हर व्यक्ति स्वतः न करेगा, सब कानूनों का पालन
तब तक अपराध न रूक सकते, कितना ही सक्षम हो शासन
मतवाले मन रूपी गज पर, अंकुष सब धर्म लगाते है
पर राजनीति उल्टा कहती, आपस में धर्म लडाते है
चल रहे लिये कई भ्रांति नई, इस युग में है दुनिया वालें
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

अनुकरण किया जाता जिनका, जब वही लूटते खाते है
तो बाॅंध सभी मर्यादाओं के, आप टूटते जाते है
धोखे बाजो से राजकोष औ‘ जन धन लुटते जाते है
अपराधी तक न्यायालय से, निर्दोष छूटते जाते है
बातें तो होती बडी-बडी, पर जाते है पर्दे डाले
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

जैसा जब चलता है समाज, वैसी बनती जन-जन की मति
काले बादल छा जाने पर, छुप जाती है रवि की भी गति
जब तक आध्यात्मिक भावों का, मन पे आलोक नहीं होगा
तब तक निष्चित है अधोपतन, सात्विक सुख भोग नहीं होगा
कुर्सी पर बैठे लोगो ने ही, हैं काले धंधे पाले
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले


झूठे आष्वासन सुन-सुन के, विष्वास उठ गये कानों के
सपनों में भटकते बरसों से, दम टूट चुके अरमानों के
कुछ ने भंडार भरें अपने, बेषर्मी से चालाकी से
पर अब भी आषा झांक रही, नयनों से अनेको बाकी के
शुभ राम राज्य की आषा में, चलते पैरो मे पडे छालें
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये

उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये

प्रो. सी. बी . श्रीवास्तव "विदग्ध "
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

घर एक है दीवार तो उठवाई हुई है
दिल एक था तकसीम तो करवाई हुई है
है एक नस्ल , रंग रूप खून औ" भाषा
अरमान एक , आग तो लगवाई हुई है

जब से उठी दीवार कभी चैन न आई
बस आग यहाँ खून वहाँ पड़ता सुनाई
दिल में कसक आंखो में आंसूं हैं चुभन के
दिन घुटन भरे रातें रही दर्द समाई

खुशहाली अमनोचैन के हम सब हैं तलबगार
पर जल रहे हैं दोनों एक इस पार एक उस पार
अक्सर सुनाई देती हैं जब दर्द सिसकियां
फिर जख्म हो उठते हरे रिसते हैं बार बार

मनहूस घड़ी थी वो , वे बेअक्ल बड़े थे
जब भूल सब अपना सगे दो भाई लड़े थे
तकदीर तो अब भी बंधी दोनो की उसी से
जिस देश के टुकड़ो को ले लड़ने को चले थे

जिनने लगाई आग वे अब लोग नही हैं
अब जो भी है सहने को तो बस हम ही यहीं हैं
बदले बहुत हालात वो दुनियां बदल चुकी
जीना तो हमें है जरा सोचें क्या सही है

चलता चला आया ये बे बुनियाद जो झगड़ा
बिगड़ा तो बहुत पर अब भी कुछ नहीं बिगड़ा
घर है वही धरती वही आकाश वही है
आओ ढ़हा दीवार मिलें दिल को कर बड़ा

लड़ने से किसे क्या मिला , मिलने में सार है
संसार में सुख का सही आधार प्यार है
कुदरत भी लुटाती है रहम ,प्यार सभी पर
नफरत तो है अंगार , मोहब्बत बहार है

है आदमी इंसान , न हिन्दू न मुसलमान
इन्सानियत ही एक है इंसान की पहचान
विज्ञान ,ज्ञान , धर्म , सभी की यही है चाह
इंसान में इंसानियत का उठ सके उफान

कई मुल्क तो बिगड़े बने, वह ही है आदमी
सीमायें तो बदली मगर बदली न ये जमीं
दिल को टटोलिये तो क्या आवाज है उसकी
होती नही बर्दाश्त जिसे आंख की नमी

सारे जहां से अच्छा है ये देश हमारा
हम बुल बुले हैं इसके ये गुलशन है हमारा
हर दिल को है ये याद , हर दिल में समाया
कैसे भुला सकेंगे ये इकबाल का नारा

इससे सही इंसान की नजरों से देखिये
लादे हुये नफरत के लबादे को फेंकिये
हम एक थे , फिर एक हों जीना जो सुकूं से
अपने बंटे बिखरे हुये घर को सहेजिये

उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

प्रकृति को जो पूजते रहते सुखी है

प्रकृति को जो पूजते रहते सुखी है

प्रकृति ही परमात्मा है वास्तव में
जो सदा संसार में सबका सहारा
प्रकृति के सहयोग औ अनुदान से ही
सुरक्षित यह विष्व औ जीवन हमारा

प्रकृति की पूजा करो समझो प्रकृति को
प्रकृति के उपचार को मन में बसाओ
करो पर्यावरण की संभव सुरक्षा
वृक्ष जल आकाष पृथ्वी को बचाओ

प्रकृति से लो सीख प्रिय संबंध जोडो
जो सदा विपदाओं में भी मुस्कुराती
तपन जलती शीत भारी घोर वर्षा
में भी खुष रह जो सदा नव गीत गाती

जुड सके यदि हम प्रकृति परिवेष से तो
दुखी मन को भी सदा खुषिया मिलेगीं
जायेगें छट आये दिन बढते अंधेरे
सुवासित सुंदर सुखद कलियाॅं खिलेगीं

स्वर्ण किरणों संग नया होगा सवेरा
दिखेंगी हर ओर नई संभावनायें
उठेंगी उत्साह की मन में उमंगे
करवटे लेंगी नवल शुभकामनायें

तोड देती व्यक्ति को कठिनाईयाॅ जब
डराती है जिंदगी की समस्यायें
थका हारा मन दुखी हो सोचता है
किया श्रम पर क्या मिला किसको बतायें

प्रकृति ले तब गोद में गा थपकियाॅ दें
स्नेह से हर लेती सब मन की व्यथायें
इन्द्रधनुषी आंज के सपने नयन में
प्रेरणापद सुनाती मनहर कथायें।

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

राष्ट्र को सुदृढ बनाने एक सही प्रकल्प हो

राष्ट्र को सुदृढ बनाने एक सही प्रकल्प हो

था विदेषी जबकि शासन देष अपना एक था
प्राप्त कर स्वातंत्र्य दो देषों में नाहक बट गया।
आये दिन बटंता ही जाता नये नये प्रदेष में
दलो, भाषा, जाति, क्षेत्रों की परिधि से पट गया।

इस तरह कैसे सुरक्षित होगी सबकी एकता
हरेक मन में चाह है जब निज अलग अनुवाद की
देषवासी चाहते यदि देष की समृद्धि हो
त्यागनी होगी उन्हें यह नीति बढते स्वार्थ की।

विखण्डन की राजनीति ने है बिकाडा देष को
सबो का तो एक निष्चित ध्येय होना चाहिए
देष की हो एक भाषा एक ही संकल्प हो
राष्ट्र हित में एक सा ही सोच होना चाहिए

बदल सकता दृष्य सबके एक अविचल सोच से
सबो का यदि देष हित में स्वैच्छिक संकल्प हो
जो करें सब साथ मिलकर एक शुभ उद्देष्य से
राष्ट्र को सुदृढ बनाने एक सही प्रकल्प हो

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘