शनिवार, 9 जुलाई 2011

चार मुक्तक

चार मुक्तक

प्रो.सी.बी.श्रीवास्वत विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मंडल कालोनी रामपुर जबलपुर

जो कभी कुर्सी पे थे वे अब गुनहगारों में है,
आये दिन खबरें अनोखी उनकी अखबारों में है।
जाने क्यों इंसान का गिर गया है इतना जमीर,
बेच जो इज्जत भी , दौलत के तलबगारों में है।।

हर जगह दुनियां में सारी, बह रही बेढब हवा,
खोजने पर भी कहीं मिलती नही जिसकी दवा।
एक दिन कटता है मुश्किल से कि दे कोई नयी व्यथा,
दूसरा आ धमकता है,दिखाने कोई दबदबा।।

गुम गई इंसानियत यों आजकल इंसान में,
वेबजह आता उतर है हर बशर मैदान में।
आपसी व्यवहार में भी बढ रही मजबूरियां,
दिल जलाती हवा बहती आज हिन्दुस्तान में।।

जानता हर कोई यहां दो दिनो का वह मेहमान है,
फिर भी जाने क्यों हरेक को गजब का अभिमान है।
बढता जाता दिनों दिन टकराव का यूं सिलसिला,
आदमी खुद अपने से भी हो गया बेइमान है।।

कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं !

कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं !

प्रो.सी.बी.श्रीवास्वत विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मंडल कालोनी रामपुर जबलपुर


कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं,
दुनियां में तूफान औ कठिनाइयां है हर कहीं।
पर जहां कठिनाईयां हैं ,वहीं पर हल भी तो है,
दिल में चहिये जूझने की तड़प् ओै बस हौसला।।1।।

जोडने को सागरों को ,नहरें तक गई हैं बनाई,
चीर छाती पर्वतेां की , सुरंगे भी गई कटाई।
यह किया सब आदमी ने ही, निरंतर लगन से,
करना होता काम करने का ,सुनिश्चित फैसला।।2।।

पुल बनाये,सागरों पर,बीहडों में रास्ते,
आदमी ने किये बिरले काम,झेले हादसे।
जीत होती है परिश्रम की हमेशा एक दिन,
जारी रखना होता है श्रम का ,निरंतर सिलसिला।।3।।

सागरों के तल टटोले, नापी नभ उचांइयां,
पहाडों को तोड़ पाने हीरे खोदी खाइयां।
कैसे कैसे करिश्में ,श्रम से किये इंसान ने,
कोशिशें की रोकने की ,सुनामी का जलजला।।4।।

अपने श्रम औ समझ से नये नये ग्रहों तक भेजे यान,
समझ साहस हौसले से ही, है मानव प्राणवान।
हर असंभव को , किया संभव ,मनुज ने अपनी दम,
दिल में चाहिये तडप करने की ,औ बढचढ हौसला।।5।।

कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं,
दिल में चहिये जूझने की तड़प् ओै बस हौसला