चार मुक्तक
प्रो.सी.बी.श्रीवास्वत विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मंडल कालोनी रामपुर जबलपुर
जो कभी कुर्सी पे थे वे अब गुनहगारों में है,
आये दिन खबरें अनोखी उनकी अखबारों में है।
जाने क्यों इंसान का गिर गया है इतना जमीर,
बेच जो इज्जत भी , दौलत के तलबगारों में है।।
हर जगह दुनियां में सारी, बह रही बेढब हवा,
खोजने पर भी कहीं मिलती नही जिसकी दवा।
एक दिन कटता है मुश्किल से कि दे कोई नयी व्यथा,
दूसरा आ धमकता है,दिखाने कोई दबदबा।।
गुम गई इंसानियत यों आजकल इंसान में,
वेबजह आता उतर है हर बशर मैदान में।
आपसी व्यवहार में भी बढ रही मजबूरियां,
दिल जलाती हवा बहती आज हिन्दुस्तान में।।
जानता हर कोई यहां दो दिनो का वह मेहमान है,
फिर भी जाने क्यों हरेक को गजब का अभिमान है।
बढता जाता दिनों दिन टकराव का यूं सिलसिला,
आदमी खुद अपने से भी हो गया बेइमान है।।
1 टिप्पणी:
सारे के सारे मुक्ताक बेहतरीन..
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