शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

उपान्यास सम्राट मुंशी प्रेम चंद के प्रति

उपान्यास  सम्राट मुंशी प्रेम चंद के प्रति

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर , जबलपुर


साहित्य मनीषी हिन्दी के अनुपम लेखक औ" कथाकार
तुम अमर कलम के जादूगर पाठक के अति प्रिय कण्ठहार
तुम प्रेम सरीके सुखद और नित शरद चंद्र से मनभावन
हे प्रेमचंद तुम हिन्दी के सुखदायी सरस मोहक सावन


हे सरल सफल साहित्यकार मर्मज्ञ गुणी ज्ञानी महान
हे ग्राम पुत्र भारत सपूत उज्जवल निरभ्र नभ के समान
शोषित जन के तुम अधिवक्ता  आर्थिक समता के पक्षकार
निर्धन दुर्बल कर्मठ कृतज्ञ आलोचक संतोषी अपार

भाषा भावों अभिव्यक्ति सभी पर रखकर के पूर्णाधिकार
तुम राष्ट्र प्रेम की प्रबल भावना के उद्गाता निर्विकार
हे उपन्यास सम्राट ग्राम्य जीवन के निश्छल चित्रकार
तुमने पात्रो को रंग दिये जो चटक सजीले चमकदार

तुमको पा हिन्दी गौरवान्वित तुमसे हम सब उन्नत्त भाल
दुनिया में कई भाषाओ ने पायी तुमसे थाती विशाल
बातें करता गोदान लिये होरी धनिया से अमर पात्र 
युग बीत गया तुम चले गये रह गयी उस युग की याद मात्र

रंग कभी न होंगे फीके वे हैं इतने गहरे असरदार
उत्प्रेरक बन मानवता को देंगे परिवर्तन के विचार
हे हिन्दी के कर्मठ योगी साधक पथदर्शक धन्य नाम
अर्पित श्रद्धा के सुमन तुम्हें सत विनत नमन अगणित प्रणाम



दुनिया को एक बनाना है

दुनिया को एक बनाना है

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर , जबलपुर


बिखरी औ" बटीं दुनियां को हमें सब मिल अब एक बनाना है
फिरकों में बटें इनसानो को हिल मिल रहना सिखलाना है

इस जग का जिसे है ज्ञान बड़ा खुद का ही उसे अज्ञान बहुत
सचमुच में जो विद्वान बड़ा इंसान है वो नादान बहुत
नभ में उड़ जल में तैर के भी चलना न राह पर आता है
उसे भीड़ भरी सड़को में सभी के संग चलना सिखलाना है

हो देश कोई परिवेश कोई है हवा दूर औ" पास वही
है धरती औ" आकाश वही मन के विचार विश्वास वही
है स्वार्थ प्रबल ममता को मसल जो लोगों को लड़वाता है
धन धर्म देश भाषा या रंग ओछा एक झूठ बहाना है

यदि स्वार्थो में टकराव न हो आपस में द्वेष दुराव न हो
सब मन खोलें नित सच बोलें सहयोग से कोई अभाव न हो
तो हो सुख शांति समृद्धि सुलभ इतिहास बताता आया है
दुख व्याधि गरीबी कटुता सब मिट जायें सहज समझाना है

युग से लड़ते कटते मरते जिसने नित खून बहाया है
पाने की आशा में जिसने खोया ज्यादा कम पाया है
उस दुनियां के रहने वालों अब समय बदलना है
श्रंगार नया कर इस अपनी दुनियां को एक बनाना है


गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

दोहे


दोहे

प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव विदग्ध
ओबी 11 एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर 482008
मो. 9425806252

प्रेम भाव सरसाइये, पुलकित हो मन प्राण
जीवन मे उत्कर्ष हो, जग का हो कल्याण

खुले हाथ नित बाटती, धरती सबको प्यार
सूख सूख फिर भी हरी, हो उठती हर बार

सदाचार संयम विनय, और सतत सत्कर्म
यही सिखाते है सभी, इस जग के सब धर्म

सभी चाहते उसी को, जिससे मिलता प्यार
सबसे हिलमिल खुश रहे, जीवन के दिन चार

भाग्यवान है वे बडे, जिन्हें मिला है प्यार
बिना प्यार जीवन दुखी, सूना सब संसार

प्रेम पनपता है सदा, पा आपस का प्यार
इकतरफा रिश्ता कठिन, निभ पाता दिन चार

मन पर वातावरण का, होता गहन प्रभाव
जब जैसी चलती हवा, उठते वैसे भाव

नैनो से नित झाकते, बैर प्रेम सदभाव
कभी नही छुपते कहीं, मन के द्वेष दुराव

लोगो को अब हो गया, धन से इतना प्यार
घपलो घोटालो से अब, त्रस्त है हर सरकार

ज्ीवन मूल्यो का सतत, होता जाता ह्ास
पर चरित्र के बिना सब, निष्फल रहे प्रयास

अपना अपना सोच है, अपना है व्यवहार
पर सचमुच संसार मे, सिर्फ प्यार है सार

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

दृष्टि

दृष्टि बदले, लोग बदले,

प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव विदग्ध ओबी 11 एमपीईबी कालोनी रामपुर, जबलपुर 482008 मो. 9425806252

आये दिन सुनने मे आते देष मे किस्से निराले नीति के विपरीत बढते जा रहे कई काम काले देख सुन जिनको कि सबके मन मे है आक्रोष भारी जिदंगी औ मौत मे निर्दोष की है जंग जारी जहाॅ मानवीय भावनाओ का हुआ करता था आदर वहाॅ राक्षसी वृत्तिया है बढ रही ममता मिटाकर लग गई हो गाॅव शहरो मे अचानक आग जैसे शांतिप्रिय इस देष मे है बढा कामाचार वैसे अनेको निर्दोष जलते जा रहे जिसमे अकारण किंतु फिर भी लोग परवष सह रहे कर मौन धारण सदाचारी राम के इस देष मे व्यभिचार क्यों है महावीर और बुद्ध के मंदिर मे अत्याचार क्यों है बढता आगे देष जब सब नीति नियमो का हो पालन नष्ट हो जाता है जब बढती अनैतिकता अपावन माॅगता जनतंत्र सबके सोच मे बदलाव आये राजनीति पवित्र हो कोई स्वार्थ न मन को लुभाये सिर्फ कानूनो से दिखता कठिन कोई सुधार लाना सुव्यवस्था हेतु मन को जरूरी निर्मल बनाना मन की सुदृण भावना कराती नियमो का पालन सिर्फ नैतिक कर्म निष्ठा से ही चल सकता है शासन हर जगह जन भावनाओ का हो रहा है नित अनादर खोता जाता है इसी से प्रषासन हर रोज आदर प्राकृतिक नियमो को न कोई भी कभी न बदल पाया किंतु मन की भवना ने सभ्य जन जन को बनाया आत्म चिंतन मनन से ही हो सभी के कर्म पावन मिटाये मन के अंधेरे ज्ञान सूर्योदय सुहावन चाहिये शुभ दृष्टि रखकर ही करे सब काम पावन दृष्टि बदले, लोग बदले, देष बदले, हो सुषासन