मंगलवार, 29 दिसंबर 2009


`धर्म है मन-मिलन, धर्म के नाम पर कहीं कोई विखण्डन नहीं चाहिये´´
प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

धर्म तो प्रेम का एक पर्याय है, प्रेम को कोई बंधन नहीं चाहिये।
पूजा वो है जो मन से हो जिसके लिये, आरती-धूप-चंदन नहीं चाहिये ।।
सब कंंगूरे, कलश और मीनार हैं
भावना के सृजन औं लगन के लिये
शंख घण्टों की ध्वनियॉं, अजानें-सभी हैं
सही ध्यान केन्द्रीकरण के लिये।
जो समझते है, वे सब हैं कहते यही
धर्म का धर्म से भेद कुछ भी नहीं
भावनाओं को बहका के झकझोरने
प्रलयकारी प्रंभजन नहीं चाहिये ।।1।।
एक भगवान है सारे संसार का,
लोगों ने रख लिये उसके कई नाम है।
कहीं मिन्दर हैं, मिस्जद है गुरूद्वारे हैं
कहीं गिरजा-उसी के ये सब धाम है।
व्यक्तिगत धारणा और विश्वास की,
सभी को संवैधानिक खुली छूट हैं
तो किसी के भी धार्मिक अनुष्ठान का कोई
खण्डन या मण्डन नहीं चाहिये ।।2।।
तर्क से फर्क बढ़ता रहा है सदा,
धर्म तो सिर्फ श्रद्धा है विश्वास है
मन से जो साफ जितना है व्यवहार में
इष्ट के अपने वह उतना ही पास है।
भक्ति को भूमि सीमा भवन स्थल की,
या कि सामान की कुछ जरूरत नहीं
उपरी साज सज्जा दिखावा है सब,
धर्म को कोई ठनगन नहीं चाहिये ।।3।।
भेद का हो समापन, सृजन हो नये
एक ऐसे सदन का जहॉं सब मिलें
जिसके विस्तीर्ण गुम्बद के नीचे सभी
धर्म औं पंथ के फूल हिलमिल खिलें।
धर्म को स्वच्छ ममता का घर चाहिये,
ईट- पत्थर से निर्मित नहीं कोई भवन,
भाव-सुमनों को छाया/औं जल चाहिये,
लू के झौंको की झुलसन नहीं चाहिये ।।5।।
है कपट, धर्म का राजनीतीकरण,
नीति के बिन न सार्थक कोई आचरण
धर्म है लोकहित का खुला रास्ता,
रास्ते को कहॉं चाहिये आवरण र्षोर्षो
भूल-भटकाव में राह मिलती नहीं,
साफ दिल हो तो बात इन्साफ की
धर्म है मन-मिलन, धर्म के नाम पर,
कहीं कोई विखण्डन नहीं चाहिये ।।6।।

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव `विदग्ध´
(प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव `विदग्ध´)

रविवार, 16 अगस्त 2009

गायत्री मंत्र का भावानुवाद


गायत्री मंत्र का भावानुवाद

मूल संस्कृत मंत्र
ॐ भूर्भुव स्वः । तत् सवितुर्वरेण्यं । भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद
द्वारा ..प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"

जो जगत को प्रभा ओ" ऐश्वर्य देता है दान
जो है आलोकित परम औ" ज्ञान से भासमान ॥

शुद्ध है विज्ञानमय है ,सबका उत्प्रेरक है जो
सब सुखो का प्रदाता , अज्ञान उन्मूलक है जो ॥

उसकी पावन भक्ति को हम , हृदय में धारण करें
प्रेम से उसके गुणो का ,रात दिन गायन करें ॥

उसका ही लें हम सहारा , उससे ये विनती करें
प्रेरणा सत्कर्म करने की ,सदा वे दें हमें ॥

बुद्धि होवे तीव्र ,मन की मूढ़ता सब दूर हो
ज्ञान के आलोक से जीवन सदा भरपूर हो ॥


शब्दार्थ ...
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ।

संपर्क ... ob 11 MPSEB Colony ,Rampur ,Jabalpur मोब. ०९४२५४८४४५२

बुधवार, 29 जुलाई 2009

अब यह रचना चिर सुसंचित रह सकेगी ....



मैं पिताजी प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहली रचना की खोज में था .... पुलिस पत्रिका वर्ष ३ अंक ११ नवम्बर १९४९ के पृष्ठ १ पर प्रकाशित यह रचना मिली ...पत्रिका के कोनो में दीमक लग रही थी ...अब यह रचना चिर सुसंचित रह सकेगी ....
आरक्षी दल के सिपाही से
चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
सिपाही तुम स्वदेश की शान !
तुम पर आधारित जनता के अरमान
शांति व्यवस्था और सुरक्षा का तुम पर भार पड़ा है
तुम खुद को छोटा मत समझो , छोटे का अधिकार बड़ा है
तुम से है समाज संचालित , तुम समाज के प्राण
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

बूंद बूंद जल के मिलने से सागर का निर्माण हुआ है
सच्चे सदा सिपाही दल से ही स्वदेश बलवान हुआ है
कर्म निष्ठ बन , धर्म निष्ठ बन राखो अपनी आन
सिपाही तुम स्वदेश की शान !
सत्य धैर्य औ नीति निपुणता सदा तुम्हारा प् दिखलायें
किन्तु शत्रु के लिये निठुरता पौरुष तुम में आश्रय पाये
भारत के विद्रोही जग में रह न सकें सप्राण
सिपाही तुम स्वदेश की शान !
वर्षों का फैला अंधियारा मानस मंदिर से मिट जाये
मातृ प्रेम का विषद दीप अब जन मन में प्रकाश फैलाये
मां का मान न घटने पाये , हो चाहे बलिदान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

बस अपने कर्तव्य प् के तुम निधड़क राही बन जाओ
देख हठीली विपदाओ को भी न तनिक तुम घबराओ
कर दो अंकित मेरु शिखर पर भी निज चरण निशान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

राष्ट्र ध्वजा लहरा लहरा कर तुम से रोज कहा करती है
शाम सबेरे बिगुल तुम्हारी रोज पुकार यही करती है
कदम कदम बढ़े चलो भारत के अभिमान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !


शनिवार, 28 मार्च 2009

गोकुल तुम्हें बुला रहा हे कृष्ण कन्हैया ।

प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर

गोकुल तुम्हें बुला रहा हे कृष्ण कन्हैया ।
वन वन भटक रही हैं ब्रजभूमि की गैया ।
दिन इतने बुरे आये कि चारा भी नही है
इनको भी तो देखो जरा हे धेनू चरैया ।।१।।

करती हे याद देवी माँ रोज तुम्हारी
यमुना का तट औ. गोपियाँ सारी ।
गई सुख धार यमुना कि उजडा है वृन्दावन
रोती तुम्हारी याद में नित यशोदा मैया ।।२।।

रहे गाँव वे , न लोग वे , न नेह भरे मन
बदले से है घर द्वार , सभी खेत , नदी , वन।
जहाँ दूध की नदियाँ थीं , वहाँ अब है वारूणी
देखो तो अपने देश को बंशी के बजैया ।।३।।

जनमन न रहा वैसा , न वैसा है आचरण
बदला सभी वातावरण , सारा रहन सहन ।
भारत तुम्हारे युग का न भारत है अब कहीं
हर ओर प्रदूषण की लहर आई कन्हैया ।।४।।

आकर के एक बार निहारो तो दशा को
बिगड़ी को बनाने की जरा नाथ दया हो ।
मन मे तो अभी भी तुम्हारे युग की ललक है
पर तेज विदेशी हवा मे बह रही नैया ।।५।।

आये हैं इस संसार में दिनचार के लिए

आये हैं इस संसार में दिनचार के लिए
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर

सब जी रहे हैं जिन्दगी पीरवार के लिए
पर मन में भारी प्यास लिए प्यार के लिए ।
सुख दिखता तो जरूर है पर िमलता नही है
शायद मिले जो हम जिये संसार के लिए।।1।।

हर दिन यहॉ हर एक की नई भाग दौड है
औरो से अधिक पाने की मन मे होड है।
सुख से सही उसका नही कोई है वास्ता
सारी यह आपाधापी है अधिकार के लिए।।2।।

अधिकार ने सबको सदा पर क्षोभ दिया है
जिसको मिला उसको यहॉ बेचैन किया है।
अिधेकार और धन से कभी भी भर न सका मन
रहा हट नई चाहत व्यापार के लिए ।।3।।

भरमाया सदा मोह ने माया ने फंसाया
खुद के सिवा कोई कभी कुछ काम न आया
रातें रही हों चॉदनी या घोर अंधरी
व्याकुल रहा है घर के ही विस्तार के लिए।।4।।

सचमुच यहॉ पर आदमी गुमराह बहुत है
कर पाता है थोडा सा ही करने को बहुत हैं ।
हम जो भी करे नाथ ! हमें इतना ध्यान हो
आये हैं इस संसार में दिन चार के लिए।।5।।

हमें दीजिए भगवान वह सामथ्र्य और ज्ञान
रहे शुध्द जिससे भावना साित्वक रहे विधान
कुछ ऐसा बने हमसे जो हो जग मे काम का

जब अंधेरा हो घना घटायें घिरें

दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक,दूर तक उजाला करें
हो जहाँ भी, या कि जिस राह पर
पथिक को राह दिखला सहारा करें
जब अंधेरा हो घना घटायें घिरें
राह सूझे न मन में बढ़ें उलझने
देख सूनी डगर, डर लगे तन कंपे
तय न कर पाये मन क्या करें न करें
तब दे आशा जगा आत्म विश्वास फिर
उसके चरणो की गति को संवांरा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
हर घड़ी बढ़ रही हैं समस्यायें नई
अचानक बेवजह आज संसार में
हो समस्या खड़ी कब यहाँ कोई बड़ी
समझना है कठिन बड़ा व्यवहार में
दीप ऐसे हो जो दें सतत रोशनी
पथिक की भूल कोई न गवारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
रास्ते तो बहुत से नये बन गये
पर बड़े टेढ़े मेढ़े हैं, सीधे नहीं
मंजिलों तक पहुंचने में हैं मुश्किलें
होती हारें भी हैं, सदा जीतें नहीँ
जूझते खुद अंधेरों से भी रात में
पथ दिखायें जो न हिम्मत हारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव

संकट की मार दुनियॉ ये खूब सह चुकी है।।

भगवान कृपा कीजे यह विश्व शंाति पाये
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर

भगवान कृपा कीजै . यह विश्व शंाति पाये ।
बढी लोभ की लपट में यह जग झुलस न जाये ।।

नई होड बढ चली हैं हर रोज जिंदगी में
लगता है लोक को भी दिखती खुशी इसी में
पर देख पाती कम है लालच भरी निगाहें
ऐसा न हो अधूरा सपना ही टूट जाये।।1।।

हंसते हुए चेहरो के मन में भी उदासी है
सब पा के भी पाने की इच्छा अभी प्यासी है।
आक्रोश भर रहा है संतोष मर रहा है
इस लू भरी हवा में बगिया उजड न जाये ।।2।।

है घेर रखी सबने कॉटो से अपनी बाडी
गडती है नजरो मे पर औरों की चलती गाडी।
हिल मिल न रह सके तो कब तक चलेगा ऐसे
भगवान ज्योति दो वह जो रास्ता दिखाये।।3।।

सपने सजा सुनहरे सदियों से हर चुकी है
संकट की मार दुनियॉ ये खूब सह चुकी है।।
फिर भी उबर न पाई कमजोरीयो से अपनी
हे नाथ ! ज्ञान दीजै खुद को समझ तो पाये ।।4।।

सिध्दिदायक गजवदन

सिध्दिदायक गजवदन

जय गणेश गणाधिपति प्रभु , सिध्दिदायक , गजवदन
विघ्ननाशक दष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।
दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है
धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है ।
हर हृदय में वेदना , आतंक का अधियार है
उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है ।।
दीजिये सब्दुध्दि का वरदान हे करूणा अयन ।।१।।

खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है,

ईद के चाँद की खोज में हर बरस ,
दिखती दुनियाँ बराबर ये बेजार है
बाँटने को मगर सब पे अपनी खुशी,
कम ही दिखता कहीं कोई तैयार है
ईद दौलत नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,
ईद जज्बा है दिल का ,खुशी की घड़ी
रस्म कोरी नहीं ,जो कि केवल निभे ,
ईद का दिल से गहरा सरोकार है !! १!!
अपने को औरों को और कुदरत को भी ,
समझने को खुदा के ये फरमान है
है मुबारक घड़ी ,करने एहसास ये -
रिश्ता है हरेक का , हरेक इंसान से
है गुँथीं साथ सबकी यहाँ जिंदगी ,
सबका मिल जुल के रहना है लाजिम यहाँ
सबके ही मेल से दुनियाँ रंगीन है ,
प्यार से खूबसूरत ये संसार है !!२!!
मोहब्बत, आदमीयत ,
मेल मिल्लत ही तो सिखाते हैं सभी मजहब संसार में
हो अमीरी, गरीबी या कि मुफलिसी ,
कोई झुलसे न नफरत के अंगार में
सिर्फ घर-गाँव -शहरों ही तक में नहीं ,
देश दुनियां में खुशियों की खुश्बू बसे
है खुदा से दुआ उसे सदबुद्धि दें,
जो जहां भी कहीं कोई गुनहगार है !!३!!
ईद सबको खुशी से गले से लगा,
सिखाती बाँटना आपसी प्यार है
है मसर्रत की पुरनूर ऐसी घड़ी,
जिसको दिल से मनाने की दरकार है
दी खुदा ने मोहब्बत की नेमत मगर,
आदमी भूल नफरत रहा बाँटता
राह ईमान की चलने का वायदा,
खुद से करने का ईद एक तेवहार है !!४!!
जो भी कुछ है यहां सब खुदा का दिया,
वह है सबका किसी एक का है नहीं
बस जरूरत है ले सब खुशी से जियें,
सभी हिल मिल जहाँ पर भी हों जो कहीं
खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है,
जो भी खुदगर्ज है वह ही बेईमान है
भाईचारा बढ़े औ मोहब्बत पले ,
ईद का यही पैगाम , इसरार है !!५!!

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव

बुधवार, 25 मार्च 2009

जो सबको बाँधे रखते हैं, ..

कई रंग में रंगे दिखते हैं ,
निश्छल प्राण के रिश्ते
कई हैं खून के रिश्ते,
कई सम्मान के रिश्ते !!
जो सबको बाँधे रखते हैं,
मधुर संबँध बंधन में
वे होते प्रेम के रिश्ते,
सरल इंसान के रिश्ते !!
भरा है एक रस मीठा,
प्रकृति ने मधुर वाणी में
जिन्हें सुन मन हुलस उठता,
हैं मेहमान के रिश्ते !!
जो हुलसाते हैं मन को ,
हर्ष की शुभ भावनाओ से
वे होते यकायक
उद्भूत,
नये अरमान के रिश्ते !!
कभी होती भी देखी हैं,
अचानक यूँ मुलाकातें
बना जाती जो जीवन में,
मधुर वरदान के रिश्ते !!
मगर इस नये जमाने में,
चला है एक चलन बेढ़ब
जहाँ आतंक ने फैलाये,
बिन पहचान के रिश्ते !!
सभी भयभीत हैं जिनसे,
न मिलती कोई खबर जिनकी
जो हैं आतंकवादी दुश्मनों से,
जान के रिश्ते !!

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"

मंगलवार, 24 मार्च 2009

घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई
औ॔" जरूरतों ने जेबों संग , है अनचाही रास रचाई

मुश्किल में हर एक साँस है , हर चेहरा चिंतित उदास है
वे ही क्या निर्धन निर्बल जो , वो भी धन जिनका कि दास है
फैले दावानल से जैसे , झुलस रही सारी अमराई !
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

पनघट खुद प्यासा प्यासा है , क्षुदित श्रमिक ,स्वामी किसान हैं
मिटी मान मर्यादा सबकी , हर घर गुमसुम परेशान है
कितनों के आँगन अनब्याहे , बज न पा रही है शहनाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

मेंहदी रच जो चली जिंदगी , टूट चुकी है उसकी आशा
पिसा जा रहा आम आदमी , हर चेहरे में छाई निराशा
चलते चलते शाम हो चली , मिली न पर मंजिल हरजाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

मिट्टी तक तो मँहगी हुई है , हुआ आदमी केवल सस्ता
चूस रही मंहगाई जिसको , खुलेआम दिन में चौरस्ता
भटक रही शंकित घबराई , दिशाहीन बिखरी तरुणाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

नई समस्यायें मुँह बाई , आबादी ,वितरण , उत्पादन
यदि न सामयिक हल होगा तो ,रोजगार ,शासन , अनुशासन
राष्ट्र प्रेम , चारीत्रिक ढ़ृड़ता की होगी कैसे भरपाई ?
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव

सोमवार, 23 मार्च 2009

खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी

बड़ी तब्दीलियाँ हुई हैं अंधेरे से उजाले तक
नया दिखता है सब कुछ हर घर से दिवाले तक

पुराने घर पुराने लोग उनकी पुरानी बातें
बदल गई सारी दुनियाँ उनकी थाली से प्याले तक

चली है जो नई फैशन बनावट की दिखावट की
लगे दिखने हैं कई चेहरे उससे गोरे कई काले तक

ली व्यवहारों ने करवट इस तरह बदले जमाने में
किसी को डर नहीं लगता कहीं करने घोटाले तक

निडर हो स्वार्थ अपना साधने अक्सर ये दिखता है
दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक

बताने बोलने रहने पहिनने के तरीकों में
नया पन है परसने और खाने में निवाले तक

जमाने की हवा से अब अछूता कोई नहीं दिखता
झलक दिखती नई रिश्तों में अब जीजा से साले तक

खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी
नहीं देते जगह अब ठहरने को धर्मशाले तक

फरक आया है तासीरों में भारी नये जमाने में
नहीं दे पाते गरमाहट कई ऊनी दुशाले तक

हैं बदले मौसमों ने आज तेवर यों "विदग्ध" अपने
नहीं दे पाते सुख गर्मी में कपड़े ढ़ीले ढ़ाले तक

- प्रो सी बी श्रीवास्तव

शनिवार, 21 मार्च 2009

मृगतृष्णा दे झूठा लालच मन को नित भरमाती जाती !

मृगतृष्णा के आकर्षण में विवश विश्व फँसता जाता है !
बच पाने की इच्छा रख भी नहीं मोह से बच पाता है!!

रंग रूप के चटख दिखावे मन में सहज ललक उकसाते
सुन्दर मनमोहक सपनों का प्रिय वितान एक सज जाता है!!

तर्क वितर्को की उलझन में बुद्धि न कुछ निर्णय कर पाती !
जहाँ देखती उसी दिशा में भ्रम में फँस बढ़ती चकराती !!

वास्तविकता पर परदा डाले भ्रम छलता बन मायावी !
अभिलाषा को नये रंग दे नयनों में बसता जाता है !!

सारा जग यह रंग भूमि है मनोभाव परदे रतनारे !
व्यक्ति पात्र, जीवन नाटक है सुख दुख उजियारे अँधियारे !!

काल चक्र का परिवर्तन करता अभिनय रचता घटनायें !
प्यार बढ़ाती मृग मरीचिका तृप्ति नहीं कोई पाता है !!

ऊपर से संतोष दिखा भी हर अन्तर हरदम प्यासा है !
हरएक आज के साथ जन्मती कल की कोई सुन्दर आशा है !!

मृगतृष्णा दे झूठा लालच मन को नित भरमाती जाती !
मानव मृग सा आतुर प्यासा भागा भागा पछताता है !!

आकुल व्याकुल मानव का मन स्थिर न कभी भी रह पाता है !
सपनों की मादक रुनझुन में सारा जीवन कट जाता है !!

कभी खुमारी कभी वेदना कभी लिये अलसाई चेतना !
मृगतृष्णा में पागल मानव मनचाहा कब कर पाता है

मृगतृष्णा के बड़े जाल में विवश फँसा मन घबराता है !
बच पाने की इच्छा रख भी कहाँ कभी भी बच पाता है

प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

विद्युत ही जग में , ईश्वर का , लगता रूप विशेष है !!

अग्नि , वायु , जल गगन, पवन ये जीवन का आधान है
इनके किसी एक के बिन भी , सृष्टि सकल निष्प्राण है !

अग्नि , ताप , ऊर्जा प्रकाश का एक अनुपम समवाय है
बिजली उसी अग्नि तत्व का , आविष्कृत पर्याय है !

बिजली है तो ही इस जग की, हर गतिविधि आसान है
जीना खाना , हँसना गाना , वैभव , सुख , सम्मान है !

बिजली बिन है बड़ी उदासी , अँधियारा संसार है ,
खो जाता हरेक क्रिया का , सहज सुगम आधार है !

हाथ पैर ठंडे हो जाते , मन होता निष्चेष्ट है ,
यह समझाता विद्युत का उपयोग महान यथेष्ट है !

यह देती प्रकाश , गति , बल , विस्तार हरेक निर्माण को
घर , कृषि , कार्यालय, बाजारों को भी ,तथा शमशान को !

बिजली ने ही किया , समूची दुनियाँ का श्रंगार है ,
सुविधा संवर्धक यह , इससे बनी गले का हार है !

मानव जीवन को दुनियाँ में , बिजली एक वरदान है
वर्तमान युग में बिजली ही, इस जग का भगवान है !

कण कण में परिव्याप्त , जगत में विद्युत का आवेश है
विद्युत ही जग में , ईश्वर का , लगता रूप विशेष है !!


- प्रो सी बी श्रीवास्तव

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

चाह जब होती न पूरी

चाह जब होती न पूरी
यत्न हो जाते विफल
बीत जाता समय,अवसर
हाथ से जाते निकल !!

छोड़ जाते टीस मन में
लालसा की प्राप्ति की
क्योंकि यह रहती न आशा
पूर्ण हो पायेगी कल !!

आदमी होता परिस्थिति
से बहुत मजबूर है
क्योंकि उसका लक्ष्य होता
जाता उससे दूर है !!

सफलता पाने का सुनिश्चित
जरूरी सिद्धांत है
समय, श्रम ,सहयोग के संग
लगना कहीं जरूर है !!

प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"

गुरुवार, 19 मार्च 2009

झूठ को सच बताने लग गये हैं

अब तो चेहरों को सजाने लग गये हैं मुखौटे !

प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
सेवानिवृत प्राध्यापक प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय
Jabalpur (M.P.)INDIA


मोबा. 9425484452
Email vivek1959@sify.com

अब तो चेहरों को सजाने लग गये हैं मुखौटे !
इसी से बहुतों को भाने लग गये हैं मुखौटे !

रूप की बदसूरती पूरी छिपा देते हैं ये
झूठ को सच बताने लग गये हैं मुखौटे !

अनेकों तो देखकर असली समझते हैं इन्हें
सफाई !सी दिखाने लग गये हैं मुखौटे !

क्षेत्र हो शिक्षा या आर्थिक धर्म या व्यवसाय का
हरएक में एक मोहिनी बन छा गये हैं मुखौटे !

इन्हीं का गुणगान विज्ञापन भी सारे कर रहे
नये जमाने को सहज ही भा गये हैं मुखौटे !

सचाई और सादगी लोगों को लगती है बुरी
बहुतों को अपने में भरमाने लग गये हैं मुखौटे !

समय के संग लोगों को रुचियों में अब बदलाव है
खरे खारे लग रहे सब मधुर खोटे मुखौटे !

बनावट औ दिखावट में उलझ गई है जिंदगी
हर जगह लगते रिझाते जगमगाते मुखौटे !

मुखौँटों का ये चलन पर ले कहाँ तक जायेगा
है विदग्ध विचारना ये क्यों हैं आखिर मुखौटे !

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

गणतंत्र दिवस

गणतंत्र दिवस

प्रो. सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
सी ६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर
जबलपुर

गणतंत्र हो अमर सही जनतंत्र हो अमर
भारत की राजनीति में इसका बढ़े असर

जनतंत्र है जीवन की विधा सबसे पुरानी
शासन समाज व्यक्ति की संयुक्त कहानी
औरो के सुख दुख का जो हर व्यक्ति को हो भान
तो जटिल समस्याओ के भी मिलें समाधान
सब लोग चैन पा सकें हो स्वर्ग हर एक घर

है पूज्य यही नीति नियम , न्याय औ" सद् भाव
स्वातंत्र्य बंधुता समानता नहीं दुराव
साथी की भावनाओ का सब करें सम्मान
कोई न हो टकराव कहीं , हठ हो न अभिमान
हर दिन विकास कर सकें हर गाँव और नगर

जनतंत्र के सिद्धांत ने दुनियां को लुभाया
जग उसकी राह पर सही चल नहीं पाया
कर्तव्य औ" अधिकार का जो हो समान ध्यान
हर व्यक्ति का कल्याण हो , हो देश कअ उत्थान