शिक्षा के मुक्तक
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
(1)
पढना लिखना आवश्यक है जो चहिये सन्मान है
शिक्षा से हर एक आदमी पा सकता सब ज्ञान है
शिक्षा देती अंधियारे को दूर हटाकर, रोशनी
पढना लिखना सुख पा सकने, के लिये बडा वरदान है
(2)
आज जरूरी पढना लिखना पैसे चार कमाने को
अपने मन की कह सकने को मन का चाहा पाने को
शिक्षा से सजता है जीवन, घर परिवार औ" आदमी
पढना लिखना बहुत जरूरी जीवन सफल बनाने को
(3)
नया जमाना है, शिक्षा हर एक को बहुत जरूरी है
बिना पढाई पिछडापन हर जीवन की मजबूरी है
सबकी समझ बढाती शिक्षा नई नई राह दिखाती है
शिक्षा से खुशियां मिलती है घटती हर एक दूरी है
(4)
गांव गांव स्कूल खुल गये पढना अब आसान है
पुस्तक भी मिलती, भोजन भी कहां कोई नुकसान है?
बिना खर्च बनता है जीवन कई नये हैं फायदे
बस पढाई मे सच्चे मन से, सिर्फ लगाना ध्यान है।
प्रकाशित किताबें ...ईशाराधन ,वतन को नमन, अनुगुंजन, नैतिक कथाये, आदर्श भाषण कला, कर्म भूमि के लिये बलिदान,जनसेवा, अंधा और लंगड़ा ,मुक्तक संग्रह,मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद ,रघुवंशम् पद्यानुवाद,समाजोपयोगी उत्पादक कार्य ,शिक्षण में नवाचार
शनिवार, 31 दिसंबर 2011
शनिवार, 24 दिसंबर 2011
नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण
नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
मन ही करता है जीवन की हर गति का संचालन
सिर्फ संयमी मन कर सकता नीति नियम का पालन
यदि मैला है मन तो झूठी सदाचार की बातें
नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण
उजले कपडे ज्ञानाडंबर, औ‘ ऊॅंचा सिंहासन
मन को सही आॅक पाने के, नही सही कोई साधन
सबकी समझ सोच होती है अलग-अलग इस जग मे
अपवित्र मन ही है निष्चित हर बुराई का कारण
सही दृष्टि से हो न सका सद्षिक्षा का निर्धारण
इसीलिये उद्दण्ड हुआ मन, तोड रहा अनुषासन
संयमहीन व्यक्ति का मन आतंकवाद की जड है
जिससे तंग सभी देषो का जग मे आज प्रषासन
नीति नियम कानून कडे हों, हो निष्पक्ष प्रषासन
पर इतने भर से संभव कम भ्रष्टाचार निवारण
सोच विचार आचरण सबके यदि चहिये हितकारी
तो जग मे मन की षिक्षा का हो पावन संसाधन
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
मन ही करता है जीवन की हर गति का संचालन
सिर्फ संयमी मन कर सकता नीति नियम का पालन
यदि मैला है मन तो झूठी सदाचार की बातें
नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण
उजले कपडे ज्ञानाडंबर, औ‘ ऊॅंचा सिंहासन
मन को सही आॅक पाने के, नही सही कोई साधन
सबकी समझ सोच होती है अलग-अलग इस जग मे
अपवित्र मन ही है निष्चित हर बुराई का कारण
सही दृष्टि से हो न सका सद्षिक्षा का निर्धारण
इसीलिये उद्दण्ड हुआ मन, तोड रहा अनुषासन
संयमहीन व्यक्ति का मन आतंकवाद की जड है
जिससे तंग सभी देषो का जग मे आज प्रषासन
नीति नियम कानून कडे हों, हो निष्पक्ष प्रषासन
पर इतने भर से संभव कम भ्रष्टाचार निवारण
सोच विचार आचरण सबके यदि चहिये हितकारी
तो जग मे मन की षिक्षा का हो पावन संसाधन
मंगलवार, 13 दिसंबर 2011
संतुलन चाहिये
संतुलन चाहिये
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
जग में अपनी और सबकी खुशी के लिये
स्वार्थ परमार्थ में संतुलन चाहिये
खोज पाने सही हल किसी प्रश्न का
परिस्थिति का सकल आंकलन चाहिये
बढते आये सदा ही मनुज के चरण स्वार्थ घेरो से पर न निकल पाया मन
औरो के प्रति समझ की रही है कमी, बहुतो के इससे आंसू भरे है नयन
हर डगर मे दुखो के शमन के लिये, परस्पर प्रेममय आचरण चाहिये
नये नये गगनचुंबी गढे तो भवन, किंतु संवेदना का किया नित हनन
भुला दुख दर्द अपने पडोसी का सब, मन रहा मस्त अपने स्वतः में मगन
साथ रहना है जब एक ही गाँव मे , भावनाओ का एकीकरण चाहिये
दिखती खटपट अधिक नेह की है कमी, इस सच्चाई को कोई नही देखता
व्यर्थ अभिमान है चाह सम्मान की ,औरो को खुद से हर कोई कम लेखता
शांति सुख प्रगति यदि चाहिये , तो सदा हर जगह आपसी अन्वयन चाहिये
आज है सभ्य दुनिया का प्रचलित चलन , बात मन की छुपा करना झूठे कथन
हाथ तो झट मिला लेना अनजान से ,किंतु अपनो से भी मिला पाना न मन
सबकी खुशियो का उत्सव सजे ,इसलिये प्रेम से पूर्ण वातावरण चाहिये
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
जग में अपनी और सबकी खुशी के लिये
स्वार्थ परमार्थ में संतुलन चाहिये
खोज पाने सही हल किसी प्रश्न का
परिस्थिति का सकल आंकलन चाहिये
बढते आये सदा ही मनुज के चरण स्वार्थ घेरो से पर न निकल पाया मन
औरो के प्रति समझ की रही है कमी, बहुतो के इससे आंसू भरे है नयन
हर डगर मे दुखो के शमन के लिये, परस्पर प्रेममय आचरण चाहिये
नये नये गगनचुंबी गढे तो भवन, किंतु संवेदना का किया नित हनन
भुला दुख दर्द अपने पडोसी का सब, मन रहा मस्त अपने स्वतः में मगन
साथ रहना है जब एक ही गाँव मे , भावनाओ का एकीकरण चाहिये
दिखती खटपट अधिक नेह की है कमी, इस सच्चाई को कोई नही देखता
व्यर्थ अभिमान है चाह सम्मान की ,औरो को खुद से हर कोई कम लेखता
शांति सुख प्रगति यदि चाहिये , तो सदा हर जगह आपसी अन्वयन चाहिये
आज है सभ्य दुनिया का प्रचलित चलन , बात मन की छुपा करना झूठे कथन
हाथ तो झट मिला लेना अनजान से ,किंतु अपनो से भी मिला पाना न मन
सबकी खुशियो का उत्सव सजे ,इसलिये प्रेम से पूर्ण वातावरण चाहिये
शासकवर्ग जहां नैतिक आचरणवान नही होगा
शासकवर्ग जहां नैतिक आचरणवान नही होगा
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
शासकवर्ग जहां नैतिक आचरण वान नही होगा
जनता से नैतिकता की आशा करना है धोखा
देश गर्त मे दुराचरण के नित गिरता जाता है
आशा के आगे तम नित गहरा घिरता जाता है
क्या भविष्य होगा भारत का है सब ओर उदासी
जन अशांति बन क्रांति न कूदे उष्ण रक्त की प्यासी
अभी समय है पथ पर आओ भूले भटके राही
स्वार्थ सिद्धि हित नही देशहित बनो सबल सहभागी
नही चाहिये रक्त धरा को तुम दो इसे पसीना
सुलभ हो सके हर जन को खुद और देश हित जीना
मानव की सभ्यता बढी है नही स्वार्थ के बल पर
आदि काल से इस अणु युग तक श्रम रथ पर ही चलकर
स्वार्थ त्याग कर जो श्रम करते वे ही कुछ पाते है
भूमि गर्भ से हीरे सागर से मोती लाते है
त्याग राष्ट्र का स्वास्थ्य, शक्ति है स्वार्थ बडी बीमारी
स्दा स्वार्थ से ही उठती है भारी अडचन सारी
अगर देश को अपने है ,उन्नत समर्थ बनाना
स्वार्थ त्याग उत्तम चरित्र सबको होगें अपनाना।
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
शासकवर्ग जहां नैतिक आचरण वान नही होगा
जनता से नैतिकता की आशा करना है धोखा
देश गर्त मे दुराचरण के नित गिरता जाता है
आशा के आगे तम नित गहरा घिरता जाता है
क्या भविष्य होगा भारत का है सब ओर उदासी
जन अशांति बन क्रांति न कूदे उष्ण रक्त की प्यासी
अभी समय है पथ पर आओ भूले भटके राही
स्वार्थ सिद्धि हित नही देशहित बनो सबल सहभागी
नही चाहिये रक्त धरा को तुम दो इसे पसीना
सुलभ हो सके हर जन को खुद और देश हित जीना
मानव की सभ्यता बढी है नही स्वार्थ के बल पर
आदि काल से इस अणु युग तक श्रम रथ पर ही चलकर
स्वार्थ त्याग कर जो श्रम करते वे ही कुछ पाते है
भूमि गर्भ से हीरे सागर से मोती लाते है
त्याग राष्ट्र का स्वास्थ्य, शक्ति है स्वार्थ बडी बीमारी
स्दा स्वार्थ से ही उठती है भारी अडचन सारी
अगर देश को अपने है ,उन्नत समर्थ बनाना
स्वार्थ त्याग उत्तम चरित्र सबको होगें अपनाना।
वह बगीचा जहां नित खिले फूल थे ....
वह बगीचा जहां नित खिले फूल थे ....
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
वह बगीचा जहां नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियां
लगता है मालियो को न चिंता कोई, जेब भरने की सबकी है तैयारियां
जहां होती थी सुरभित सुमन की छटा, वहां सूखी सी कांटो भरी डार है
नाम तो आज भी है चमन का बहुत, किंतु लगता घटा स्वार्थ वश प्यार है
बदली तासीर आबो हवा इस तरह, फूल है झर रहे बढा पतझार है
ज्यो दवा हो रही कि बगीचा सजे, और बढती सी दिखती है बीमारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ
सर्दी आई घना कोहरा सा छा रहा, हर दिशा है उदासी का वातावरण
हर गली हवा अनबन की है बह रही, नहीं दिखती सही चेतना की किरण
आचरण मेल ममता के पंछी सभी उड चले छोड मन के हरे बाग को
बढती जाती है मतभेद की भवना त्याग कर आपसी प्रेम अनुराग को
परवरिष कर सजाने चमन की जगह मन में बढती सी जाती है बदकारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ
नीति की कोकिला रोती बंदी बनी, कोई सुनता नही उसे दरबार मे
ध्यान जाता नही है किसी का भी अब दुखी की दीनता भरी मनुहार मे
न वंसती हवा डोलती अब कही न कही है खुशी न ही त्यौहार है
जिस बगीचे मे खिलते थे सुंदर सुमन वहाँ हर क्यारी दीमक की भरमार है
फिर से मिट्टी अगर ये न बदली गई कैसे संभलेगी उजडी सी फुलवारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
वह बगीचा जहां नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियां
लगता है मालियो को न चिंता कोई, जेब भरने की सबकी है तैयारियां
जहां होती थी सुरभित सुमन की छटा, वहां सूखी सी कांटो भरी डार है
नाम तो आज भी है चमन का बहुत, किंतु लगता घटा स्वार्थ वश प्यार है
बदली तासीर आबो हवा इस तरह, फूल है झर रहे बढा पतझार है
ज्यो दवा हो रही कि बगीचा सजे, और बढती सी दिखती है बीमारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ
सर्दी आई घना कोहरा सा छा रहा, हर दिशा है उदासी का वातावरण
हर गली हवा अनबन की है बह रही, नहीं दिखती सही चेतना की किरण
आचरण मेल ममता के पंछी सभी उड चले छोड मन के हरे बाग को
बढती जाती है मतभेद की भवना त्याग कर आपसी प्रेम अनुराग को
परवरिष कर सजाने चमन की जगह मन में बढती सी जाती है बदकारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ
नीति की कोकिला रोती बंदी बनी, कोई सुनता नही उसे दरबार मे
ध्यान जाता नही है किसी का भी अब दुखी की दीनता भरी मनुहार मे
न वंसती हवा डोलती अब कही न कही है खुशी न ही त्यौहार है
जिस बगीचे मे खिलते थे सुंदर सुमन वहाँ हर क्यारी दीमक की भरमार है
फिर से मिट्टी अगर ये न बदली गई कैसे संभलेगी उजडी सी फुलवारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ
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