पिताश्री प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों की पुस्तक यात्रा
1948 चाँद , सरस्वती जैसी तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से प्रारंभ उनकी शब्द यात्रा के प्रवाह के पड़ाव हैं उनकी ये किताबें ।
पहले पुस्तक प्रकाशन केंद्र दिल्ली की जगह आगरा और इलाहाबाद हुआ करता था। आगरा का प्रगति प्रकाशन साहित्यिक किताबों के लिए बहुत प्रसिद्ध था । स्वर्गीय परदेसी जी द्वारा साहित्यकार कोष भी छापा गया था, जिसमें पिताजी का विस्तृत परिचय छपा है ।भारत चीन व पाकिस्तान युद्धो के समय जय जवान जय किसान , उद्गम, सदाबहार गुलाब ,गर्जना ,युग ध्वनि आदि प्रगति प्रकाशन की किताबों में पिताजी की रचनाएं प्रकाशित हैं । कुछ किताबें उन्हें समर्पित की गई हैं , कुछ का उन्होंने सम्पादन किया है । ये सामूहिक संग्रह हैं ।
पिताजी शिक्षा विभाग में प्राचार्य , फिर संयुक्त संचालक , शिक्षा महाविद्यालय में प्राध्यापक , केंद्रीय विद्यालय जबलपुर तथा जूनियर कालेज सरायपाली के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं आशय यह कि उन्होंने न जाने कितनी ही पुस्तकें पुस्तकालयों के लिए खरीदी , पर जोड़ तोड़ गुणा भाग से अनभिज्ञ सिद्धांत वादी पिताश्री की रचनाये पुस्तक रूप में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मैंने ही प्रस्तुत कीं । उन्हें किताबें छपवाने , विमोचन समारोह करने, सम्मान वगैरह में कभी दिलचस्पी नहीं रही।
मेघदूतम का हिंदी छंदबद्ध पद्यानुवाद उनका बहुत पुराना काम था , जो पहली पुस्तक के रूप में 1988 में आया । बाद में मांग पर उसका नया संस्करण भी पुनर्मुद्रित हुआ।
फिर ईशाराधन आई , जिसमे उनकी रचित मधुर प्रार्थनाये हैं ।
वे लिखते हैं
नील नभ तारा ग्रहों का अकल्पित विस्तार है
है बड़ा आश्चर्य , हर एक पिण्ड बे आधार है
है नहीं कुछ भी जिसे सब लोग कहते हैं गगन
धूल कण निर्मित भरी जल से सुहानी है धरा
पेड़-पौधे जीव जड़ जीवन विविधता से भरा
किंतु सब के साथ सीमा और है जीवन मरण
सूक्ष्म तम परमाणु अद्भुत शक्ति का आगार है
हृदय की धड़कन से भड़ भड़ सृजित संसार है
जीव क्या यह विश्व क्यों सब कठिन चिंतन मनन
कारगिल युद्व के समय मण्डला के स्टेडियम में गणतंत्र दिवस के भव्य समारोह में उल्लेखनीय रूप से वतन को नमन का विमोचन हुआ ।
पिताश्री की रचनाओ का मूल स्वर देशभक्ति , आध्यात्मिक्ता , बच्चों के लिए शिक्षा प्रद गीत , तात्कालिक घटनाओं पर काव्य मय सन्देश , संस्कृत से हिंदी काव्य अनुवाद है ।
अनुगुंजन का प्रकाशन वर्ष 2000 में हुआ , जिसके विषय में सागर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखते हुए पिताजी की ही रचना उधृत की है
होते हैं मधुरतम गीत वही
जो मन की व्यथा सुनाते हैं
जो सरल शब्द संकेतों से
अंतर मन को छू जाते हैं
वसुधा के संपादक डॉक्टर कमला प्रसाद ने उनके गीतों के विषय में लिखा "वे सामाजिक अराजकता के विरोधी हैं उनकी कविताओं में सरलता सरसता तथा दिशा बोध बहुत साफ दिखाई देते हैं ,विचारों की दृढ़ता तथा भावों की स्पष्टता के लिए उनके गीत हिंदी साहित्य में उदाहरण है"
बाल साहित्य की उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं बाल गीतिका ,बाल कौमुदी, सुमन साधिका, चारु चंद्रिका ,कर्मभूमि के लिए बलिदान, जनसेवा ,अंधा और लंगड़ा , नैतिक कथाएं , आदर्श भाषण कला इत्यादि ये पुस्तकें विभिन्न पुस्तकालयों में खूब खरीदी गईं ।
मानस के मोती तथा मानस मंथन रामचरितमानस पर उनके लेखों के संग्रह हैं । मार्गदर्शक चिंतन वैचारिक दिशा प्रदान करते आलेख हैं ।
भगवत गीता के प्रत्येक श्लोक का हिंदी पद्यानुवाद अर्थ सहित दो संस्करण छप चुका है । अनेक अखबार इसे धारावाहिक छाप रहे हैं । यह किताब लगातार बहुत डिमांड में है।
तीसरा संस्करण तैयार है जिसमे अंग्रेजी में भी अर्थ दिया गया है ।
प्रकाशक संपर्क कर सकते हैं ।
रघुवंश का भी सम्पूर्ण हिंदी काव्य अनुवाद प्रकाशित है । 1900 श्लोकों का वृहद अनुवाद कार्य उन्होनें मनोरम रूप में मूल काव्य की भावना की रक्षा करते हुए किया । यह 2014 में छपा ।
कालीदास अकादमी के निदेशक रहे कृष्ण कांत चतुर्वेदी जी ने भूमिका में लिखा है कि भाव अनुवाद का यह कार्य मूल लेखन से कठिन होता है क्योंकि अनुवादक को मूल कवि की आत्मा में परकाया प्रवेश कर भाव रक्षा करते हुए काव्य अनुवाद करना पड़ता है । जिसे तभी किया जा सकता है जब दोनों भाषाओं व काव्य कौशल पर समान अधिकार हो । विदग्ध जी ने अनुवाद के ये असाधारण कार्य मेघदूत , रघुवंश , भगवत गीता व अन्य अनेक संस्कृत श्लोकों के अनुवाद में किये हैं , व संस्कृत न समझने वाले युवा पाठको हेतु ये महान ग्रन्थ सुलभ कर दिए हैं । उनके ही अनुवाद को आधार बनाकर नरेश जी ने रघुवंश का अंगिका भाषा मे अनुवाद कर डाला है ।
साहित्य अकादमी के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने पिताजी की पुस्तक स्वयं प्रभा जिसका प्रकाशन सितंबर 2014 में हुआ के विषय में लिखा है
श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव के गीत कविता को प्यार , स्नेह , संवेदना और सुंदरता के सीमित आंचल से बाहर निकालते हुए देशभक्ति के विस्तृत पटल तक ले जाती हैं । रचनाओं को पढ़ते ही मन देश प्रेम के सागर में हिलोरे लेने लगता है । आज सुसंस्कृत भारत की संस्कार और संस्कृति की समझ कम हो रही है वहीं ऐसे कठिन समय में विदग्ध जी की रचनाएं महासृजन की बेला में शब्दों और भाषा से शिल्पित , सराहनीय, उद्देश्य में सफल है।
फरवरी 2015 में अंतर्ध्वनि आई। म प्र राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्री संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त जी ने इसकी भूमिका में लिखा है " उनकी संवेदना का विस्तार व्यापक है , कविताओं का शिल्प द्विवेदी युगीन है । वे उनकी सरस्वती वंदना से पंक्तियों को उधृत करते हैं
हो रही घर-घर निरंतर आज धन की साधना
स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना
आत्मवंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है
चेतना गीत की जगा मां , स्वरों को झंकार दे
भारतीय दर्शन को सरल शब्दों में व्याख्यायित करते हुए एक अन्य कविता में विदग्ध जी लिखते हैं ,
प्रकृति में है चेतना , हर एक कण सप्राण है
इसी से कहते कि कण कण में बसा भगवान है
चेतना है ऊर्जा , एक शक्ति जो अदृश्य है
है बिना आकार पर , अनुभूतियों में दृश्य है
2018 में अनुभूति, फिर हाल ही 2019 में शब्दधारा पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं ।
2018 दिसम्बर का ट्रू मीडिया विशेषांक पिताजी पर केंद्रित अंक था । आनेको समूह संग्रहो में भी वे उपस्थित हैं।
उनकी ढेरो कविताये डिजिटल मोड में मेरे कम्प्यूटर पर हैं जिनकी सहज ही दस पुस्तकें तो बन ही सकती हैं । प्रकाशक मित्रों का स्वागत है ।
उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है । जो हमारी पूंजी है ।
1948 चाँद , सरस्वती जैसी तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से प्रारंभ उनकी शब्द यात्रा के प्रवाह के पड़ाव हैं उनकी ये किताबें ।
पहले पुस्तक प्रकाशन केंद्र दिल्ली की जगह आगरा और इलाहाबाद हुआ करता था। आगरा का प्रगति प्रकाशन साहित्यिक किताबों के लिए बहुत प्रसिद्ध था । स्वर्गीय परदेसी जी द्वारा साहित्यकार कोष भी छापा गया था, जिसमें पिताजी का विस्तृत परिचय छपा है ।भारत चीन व पाकिस्तान युद्धो के समय जय जवान जय किसान , उद्गम, सदाबहार गुलाब ,गर्जना ,युग ध्वनि आदि प्रगति प्रकाशन की किताबों में पिताजी की रचनाएं प्रकाशित हैं । कुछ किताबें उन्हें समर्पित की गई हैं , कुछ का उन्होंने सम्पादन किया है । ये सामूहिक संग्रह हैं ।
पिताजी शिक्षा विभाग में प्राचार्य , फिर संयुक्त संचालक , शिक्षा महाविद्यालय में प्राध्यापक , केंद्रीय विद्यालय जबलपुर तथा जूनियर कालेज सरायपाली के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं आशय यह कि उन्होंने न जाने कितनी ही पुस्तकें पुस्तकालयों के लिए खरीदी , पर जोड़ तोड़ गुणा भाग से अनभिज्ञ सिद्धांत वादी पिताश्री की रचनाये पुस्तक रूप में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मैंने ही प्रस्तुत कीं । उन्हें किताबें छपवाने , विमोचन समारोह करने, सम्मान वगैरह में कभी दिलचस्पी नहीं रही।
मेघदूतम का हिंदी छंदबद्ध पद्यानुवाद उनका बहुत पुराना काम था , जो पहली पुस्तक के रूप में 1988 में आया । बाद में मांग पर उसका नया संस्करण भी पुनर्मुद्रित हुआ।
फिर ईशाराधन आई , जिसमे उनकी रचित मधुर प्रार्थनाये हैं ।
वे लिखते हैं
नील नभ तारा ग्रहों का अकल्पित विस्तार है
है बड़ा आश्चर्य , हर एक पिण्ड बे आधार है
है नहीं कुछ भी जिसे सब लोग कहते हैं गगन
धूल कण निर्मित भरी जल से सुहानी है धरा
पेड़-पौधे जीव जड़ जीवन विविधता से भरा
किंतु सब के साथ सीमा और है जीवन मरण
सूक्ष्म तम परमाणु अद्भुत शक्ति का आगार है
हृदय की धड़कन से भड़ भड़ सृजित संसार है
जीव क्या यह विश्व क्यों सब कठिन चिंतन मनन
कारगिल युद्व के समय मण्डला के स्टेडियम में गणतंत्र दिवस के भव्य समारोह में उल्लेखनीय रूप से वतन को नमन का विमोचन हुआ ।
पिताश्री की रचनाओ का मूल स्वर देशभक्ति , आध्यात्मिक्ता , बच्चों के लिए शिक्षा प्रद गीत , तात्कालिक घटनाओं पर काव्य मय सन्देश , संस्कृत से हिंदी काव्य अनुवाद है ।
अनुगुंजन का प्रकाशन वर्ष 2000 में हुआ , जिसके विषय में सागर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखते हुए पिताजी की ही रचना उधृत की है
होते हैं मधुरतम गीत वही
जो मन की व्यथा सुनाते हैं
जो सरल शब्द संकेतों से
अंतर मन को छू जाते हैं
वसुधा के संपादक डॉक्टर कमला प्रसाद ने उनके गीतों के विषय में लिखा "वे सामाजिक अराजकता के विरोधी हैं उनकी कविताओं में सरलता सरसता तथा दिशा बोध बहुत साफ दिखाई देते हैं ,विचारों की दृढ़ता तथा भावों की स्पष्टता के लिए उनके गीत हिंदी साहित्य में उदाहरण है"
बाल साहित्य की उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं बाल गीतिका ,बाल कौमुदी, सुमन साधिका, चारु चंद्रिका ,कर्मभूमि के लिए बलिदान, जनसेवा ,अंधा और लंगड़ा , नैतिक कथाएं , आदर्श भाषण कला इत्यादि ये पुस्तकें विभिन्न पुस्तकालयों में खूब खरीदी गईं ।
मानस के मोती तथा मानस मंथन रामचरितमानस पर उनके लेखों के संग्रह हैं । मार्गदर्शक चिंतन वैचारिक दिशा प्रदान करते आलेख हैं ।
भगवत गीता के प्रत्येक श्लोक का हिंदी पद्यानुवाद अर्थ सहित दो संस्करण छप चुका है । अनेक अखबार इसे धारावाहिक छाप रहे हैं । यह किताब लगातार बहुत डिमांड में है।
तीसरा संस्करण तैयार है जिसमे अंग्रेजी में भी अर्थ दिया गया है ।
प्रकाशक संपर्क कर सकते हैं ।
रघुवंश का भी सम्पूर्ण हिंदी काव्य अनुवाद प्रकाशित है । 1900 श्लोकों का वृहद अनुवाद कार्य उन्होनें मनोरम रूप में मूल काव्य की भावना की रक्षा करते हुए किया । यह 2014 में छपा ।
कालीदास अकादमी के निदेशक रहे कृष्ण कांत चतुर्वेदी जी ने भूमिका में लिखा है कि भाव अनुवाद का यह कार्य मूल लेखन से कठिन होता है क्योंकि अनुवादक को मूल कवि की आत्मा में परकाया प्रवेश कर भाव रक्षा करते हुए काव्य अनुवाद करना पड़ता है । जिसे तभी किया जा सकता है जब दोनों भाषाओं व काव्य कौशल पर समान अधिकार हो । विदग्ध जी ने अनुवाद के ये असाधारण कार्य मेघदूत , रघुवंश , भगवत गीता व अन्य अनेक संस्कृत श्लोकों के अनुवाद में किये हैं , व संस्कृत न समझने वाले युवा पाठको हेतु ये महान ग्रन्थ सुलभ कर दिए हैं । उनके ही अनुवाद को आधार बनाकर नरेश जी ने रघुवंश का अंगिका भाषा मे अनुवाद कर डाला है ।
साहित्य अकादमी के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने पिताजी की पुस्तक स्वयं प्रभा जिसका प्रकाशन सितंबर 2014 में हुआ के विषय में लिखा है
श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव के गीत कविता को प्यार , स्नेह , संवेदना और सुंदरता के सीमित आंचल से बाहर निकालते हुए देशभक्ति के विस्तृत पटल तक ले जाती हैं । रचनाओं को पढ़ते ही मन देश प्रेम के सागर में हिलोरे लेने लगता है । आज सुसंस्कृत भारत की संस्कार और संस्कृति की समझ कम हो रही है वहीं ऐसे कठिन समय में विदग्ध जी की रचनाएं महासृजन की बेला में शब्दों और भाषा से शिल्पित , सराहनीय, उद्देश्य में सफल है।
फरवरी 2015 में अंतर्ध्वनि आई। म प्र राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्री संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त जी ने इसकी भूमिका में लिखा है " उनकी संवेदना का विस्तार व्यापक है , कविताओं का शिल्प द्विवेदी युगीन है । वे उनकी सरस्वती वंदना से पंक्तियों को उधृत करते हैं
हो रही घर-घर निरंतर आज धन की साधना
स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना
आत्मवंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है
चेतना गीत की जगा मां , स्वरों को झंकार दे
भारतीय दर्शन को सरल शब्दों में व्याख्यायित करते हुए एक अन्य कविता में विदग्ध जी लिखते हैं ,
प्रकृति में है चेतना , हर एक कण सप्राण है
इसी से कहते कि कण कण में बसा भगवान है
चेतना है ऊर्जा , एक शक्ति जो अदृश्य है
है बिना आकार पर , अनुभूतियों में दृश्य है
2018 में अनुभूति, फिर हाल ही 2019 में शब्दधारा पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं ।
2018 दिसम्बर का ट्रू मीडिया विशेषांक पिताजी पर केंद्रित अंक था । आनेको समूह संग्रहो में भी वे उपस्थित हैं।
उनकी ढेरो कविताये डिजिटल मोड में मेरे कम्प्यूटर पर हैं जिनकी सहज ही दस पुस्तकें तो बन ही सकती हैं । प्रकाशक मित्रों का स्वागत है ।
उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है । जो हमारी पूंजी है ।