उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये
प्रो. सी. बी . श्रीवास्तव "विदग्ध "
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
घर एक है दीवार तो उठवाई हुई है
दिल एक था तकसीम तो करवाई हुई है
है एक नस्ल , रंग रूप खून औ" भाषा
अरमान एक , आग तो लगवाई हुई है
जब से उठी दीवार कभी चैन न आई
बस आग यहाँ खून वहाँ पड़ता सुनाई
दिल में कसक आंखो में आंसूं हैं चुभन के
दिन घुटन भरे रातें रही दर्द समाई
खुशहाली अमनोचैन के हम सब हैं तलबगार
पर जल रहे हैं दोनों एक इस पार एक उस पार
अक्सर सुनाई देती हैं जब दर्द सिसकियां
फिर जख्म हो उठते हरे रिसते हैं बार बार
मनहूस घड़ी थी वो , वे बेअक्ल बड़े थे
जब भूल सब अपना सगे दो भाई लड़े थे
तकदीर तो अब भी बंधी दोनो की उसी से
जिस देश के टुकड़ो को ले लड़ने को चले थे
जिनने लगाई आग वे अब लोग नही हैं
अब जो भी है सहने को तो बस हम ही यहीं हैं
बदले बहुत हालात वो दुनियां बदल चुकी
जीना तो हमें है जरा सोचें क्या सही है
चलता चला आया ये बे बुनियाद जो झगड़ा
बिगड़ा तो बहुत पर अब भी कुछ नहीं बिगड़ा
घर है वही धरती वही आकाश वही है
आओ ढ़हा दीवार मिलें दिल को कर बड़ा
लड़ने से किसे क्या मिला , मिलने में सार है
संसार में सुख का सही आधार प्यार है
कुदरत भी लुटाती है रहम ,प्यार सभी पर
नफरत तो है अंगार , मोहब्बत बहार है
है आदमी इंसान , न हिन्दू न मुसलमान
इन्सानियत ही एक है इंसान की पहचान
विज्ञान ,ज्ञान , धर्म , सभी की यही है चाह
इंसान में इंसानियत का उठ सके उफान
कई मुल्क तो बिगड़े बने, वह ही है आदमी
सीमायें तो बदली मगर बदली न ये जमीं
दिल को टटोलिये तो क्या आवाज है उसकी
होती नही बर्दाश्त जिसे आंख की नमी
सारे जहां से अच्छा है ये देश हमारा
हम बुल बुले हैं इसके ये गुलशन है हमारा
हर दिल को है ये याद , हर दिल में समाया
कैसे भुला सकेंगे ये इकबाल का नारा
इससे सही इंसान की नजरों से देखिये
लादे हुये नफरत के लबादे को फेंकिये
हम एक थे , फिर एक हों जीना जो सुकूं से
अपने बंटे बिखरे हुये घर को सहेजिये
उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये
1 टिप्पणी:
कैसे सहेज पायेंगे, अफरीदी का बयान तो पढ़ ही लिया होगा..
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