वो बगीचा जहाॅ फूल रसगंध थी,
आज वीरान दिखती है सब क्यारियाॅं।
मालियों को न परवाह इसकी,
सभी दिख रहे कर रहे और तैयारियाॅ।
फूल खिलते जहाॅ थे हैं कांटे उगे
थी बहारे जहाॅ, आज पतझार है।
लोग कहते तो है ये बगीचा है पर
दिखता इससे किसी को नहीं प्यार है।
बदली तासीर आबो हवा इस तरह
फूल मुरझाये कांटे बढ़े हर तरफ।
ज्यों दवा की कि फिर पौध विकसे नई
और बढ़ती गई रोज बीमारियाॅं।
इक बवंडर उठा छा धुंधलका गया
धूल से भर गया पूर्ण वातावरण।
आदमी व्यस्त अपनी संजोने में है,
पड़ी फीकी मधुर भावना की किरण।
आचरण धर्म ईमान सब खो गये
हाथ गठरी संभाले हुए दाम की।
इस अंधेरे में खुद गुम गया आदमी
सब समेटे हुए व्यर्थ बेकारियाॅ।
नीति कोपल सिसकती है बंदिनी बनी
हाल बेखबर राज दरबार मे।
दे सहारा उठाये संवारे उसे
आज दिखता नहीं कोई संसार में।
जिंदगी में उमस, सांस में है कसक
सारी जनता परेषान है हाल से।
फिर से मिट्टी अगर बन न पाई नई
कैसें संभलेगी उजडी ये फुलवारियाॅं।
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
1 टिप्पणी:
बहुत ही सार्थक संदेश छुपा है. आवश्यकता है इस पर ध्यान देने की..
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