शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

बढते नये घपले - घोटाले

बढते नये घपले - घोटाले

सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले
धन के लालच में स्वार्थो ने, सबके मन मैले कर डाले
क्या रोक सके है बांॅध कभी, सरिता के प्रबल प्रवाहो को ?
कानून भला क्या बदल सके हैं, चंचल मन की राहो को ?
उठते हैं मन में ज्वार सदा, हर क्षण नये नये सुख पाने को
जल्दी से जल्दी बिना परिश्रम, अधिकाधिक हथियाने को
इससे ही लुक छिप कर, तोडे जाते गोदामों के ताले
सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले

केवल सच्ची धार्मिक षिक्षा, से ही संस्कारित होता मन
निस्वार्थ प्रेम की भावभूमि पर, ही मिटती मन की अनबन
घर में बचपन की षिक्षा से, होता चरित्र का संपादन
पर राजनीति ने आज किया, धार्मिक षिक्षा का निष्कासन
इससे उदण्ड हुये मन ने, की चोरी औ‘ डाके डाले
सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले


जब तक हर व्यक्ति स्वतः न करेगा, सब कानूनों का पालन
तब तक अपराध न रूक सकते, कितना ही सक्षम हो शासन
मतवाले मन रूपी गज पर, अंकुष सब धर्म लगाते है
पर राजनीति उल्टा कहती, आपस में धर्म लडाते है
चल रहे लिये कई भ्रांति नई, इस युग में है दुनिया वालें
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

अनुकरण किया जाता जिनका, जब वही लूटते खाते है
तो बाॅंध सभी मर्यादाओं के, आप टूटते जाते है
धोखे बाजो से राजकोष औ‘ जन धन लुटते जाते है
अपराधी तक न्यायालय से, निर्दोष छूटते जाते है
बातें तो होती बडी-बडी, पर जाते है पर्दे डाले
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

जैसा जब चलता है समाज, वैसी बनती जन-जन की मति
काले बादल छा जाने पर, छुप जाती है रवि की भी गति
जब तक आध्यात्मिक भावों का, मन पे आलोक नहीं होगा
तब तक निष्चित है अधोपतन, सात्विक सुख भोग नहीं होगा
कुर्सी पर बैठे लोगो ने ही, हैं काले धंधे पाले
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले


झूठे आष्वासन सुन-सुन के, विष्वास उठ गये कानों के
सपनों में भटकते बरसों से, दम टूट चुके अरमानों के
कुछ ने भंडार भरें अपने, बेषर्मी से चालाकी से
पर अब भी आषा झांक रही, नयनों से अनेको बाकी के
शुभ राम राज्य की आषा में, चलते पैरो मे पडे छालें
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

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