शनिवार, 31 दिसंबर 2011

शिक्षा के मुक्तक

शिक्षा के मुक्तक
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252
(1)
पढना लिखना आवश्यक है जो चहिये सन्मान है
शिक्षा से हर एक आदमी पा सकता सब ज्ञान है
शिक्षा देती अंधियारे को दूर हटाकर, रोशनी
पढना लिखना सुख पा सकने, के लिये बडा वरदान है
(2)
आज जरूरी पढना लिखना पैसे चार कमाने को
अपने मन की कह सकने को मन का चाहा पाने को
शिक्षा से सजता है जीवन, घर परिवार औ" आदमी
पढना लिखना बहुत जरूरी जीवन सफल बनाने को
(3)
नया जमाना है, शिक्षा हर एक को बहुत जरूरी है
बिना पढाई पिछडापन हर जीवन की मजबूरी है
सबकी समझ बढाती शिक्षा नई नई राह दिखाती है
शिक्षा से खुशियां मिलती है घटती हर एक दूरी है
(4)
गांव गांव स्कूल खुल गये पढना अब आसान है
पुस्तक भी मिलती, भोजन भी कहां कोई नुकसान है?
बिना खर्च बनता है जीवन कई नये हैं फायदे
बस पढाई मे सच्चे मन से, सिर्फ लगाना ध्यान है।

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण

नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252


मन ही करता है जीवन की हर गति का संचालन
सिर्फ संयमी मन कर सकता नीति नियम का पालन
यदि मैला है मन तो झूठी सदाचार की बातें
नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण

उजले कपडे ज्ञानाडंबर, औ‘ ऊॅंचा सिंहासन
मन को सही आॅक पाने के, नही सही कोई साधन
सबकी समझ सोच होती है अलग-अलग इस जग मे
अपवित्र मन ही है निष्चित हर बुराई का कारण

सही दृष्टि से हो न सका सद्षिक्षा का निर्धारण
इसीलिये उद्दण्ड हुआ मन, तोड रहा अनुषासन
संयमहीन व्यक्ति का मन आतंकवाद की जड है
जिससे तंग सभी देषो का जग मे आज प्रषासन

नीति नियम कानून कडे हों, हो निष्पक्ष प्रषासन
पर इतने भर से संभव कम भ्रष्टाचार निवारण
सोच विचार आचरण सबके यदि चहिये हितकारी
तो जग मे मन की षिक्षा का हो पावन संसाधन

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

संतुलन चाहिये

संतुलन चाहिये

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252


जग में अपनी और सबकी खुशी के लिये
स्वार्थ परमार्थ में संतुलन चाहिये
खोज पाने सही हल किसी प्रश्न का
परिस्थिति का सकल आंकलन चाहिये

बढते आये सदा ही मनुज के चरण स्वार्थ घेरो से पर न निकल पाया मन
औरो के प्रति समझ की रही है कमी, बहुतो के इससे आंसू भरे है नयन
हर डगर मे दुखो के शमन के लिये, परस्पर प्रेममय आचरण चाहिये

नये नये गगनचुंबी गढे तो भवन, किंतु संवेदना का किया नित हनन
भुला दुख दर्द अपने पडोसी का सब, मन रहा मस्त अपने स्वतः में मगन
साथ रहना है जब एक ही गाँव मे , भावनाओ का एकीकरण चाहिये

दिखती खटपट अधिक नेह की है कमी, इस सच्चाई को कोई नही देखता
व्यर्थ अभिमान है चाह सम्मान की ,औरो को खुद से हर कोई कम लेखता
शांति सुख प्रगति यदि चाहिये , तो सदा हर जगह आपसी अन्वयन चाहिये

आज है सभ्य दुनिया का प्रचलित चलन , बात मन की छुपा करना झूठे कथन
हाथ तो झट मिला लेना अनजान से ,किंतु अपनो से भी मिला पाना न मन
सबकी खुशियो का उत्सव सजे ,इसलिये प्रेम से पूर्ण वातावरण चाहिये

शासकवर्ग जहां नैतिक आचरणवान नही होगा

शासकवर्ग जहां नैतिक आचरणवान नही होगा

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252

शासकवर्ग जहां नैतिक आचरण वान नही होगा
जनता से नैतिकता की आशा करना है धोखा

देश गर्त मे दुराचरण के नित गिरता जाता है
आशा के आगे तम नित गहरा घिरता जाता है

क्या भविष्य होगा भारत का है सब ओर उदासी
जन अशांति बन क्रांति न कूदे उष्ण रक्त की प्यासी

अभी समय है पथ पर आओ भूले भटके राही
स्वार्थ सिद्धि हित नही देशहित बनो सबल सहभागी

नही चाहिये रक्त धरा को तुम दो इसे पसीना
सुलभ हो सके हर जन को खुद और देश हित जीना

मानव की सभ्यता बढी है नही स्वार्थ के बल पर
आदि काल से इस अणु युग तक श्रम रथ पर ही चलकर

स्वार्थ त्याग कर जो श्रम करते वे ही कुछ पाते है
भूमि गर्भ से हीरे सागर से मोती लाते है

त्याग राष्ट्र का स्वास्थ्य, शक्ति है स्वार्थ बडी बीमारी
स्दा स्वार्थ से ही उठती है भारी अडचन सारी

अगर देश को अपने है ,उन्नत समर्थ बनाना
स्वार्थ त्याग उत्तम चरित्र सबको होगें अपनाना।

वह बगीचा जहां नित खिले फूल थे ....

वह बगीचा जहां नित खिले फूल थे ....

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252



वह बगीचा जहां नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियां
लगता है मालियो को न चिंता कोई, जेब भरने की सबकी है तैयारियां

जहां होती थी सुरभित सुमन की छटा, वहां सूखी सी कांटो भरी डार है
नाम तो आज भी है चमन का बहुत, किंतु लगता घटा स्वार्थ वश प्यार है
बदली तासीर आबो हवा इस तरह, फूल है झर रहे बढा पतझार है
ज्यो दवा हो रही कि बगीचा सजे, और बढती सी दिखती है बीमारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ

सर्दी आई घना कोहरा सा छा रहा, हर दिशा है उदासी का वातावरण
हर गली हवा अनबन की है बह रही, नहीं दिखती सही चेतना की किरण
आचरण मेल ममता के पंछी सभी उड चले छोड मन के हरे बाग को
बढती जाती है मतभेद की भवना त्याग कर आपसी प्रेम अनुराग को
परवरिष कर सजाने चमन की जगह मन में बढती सी जाती है बदकारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ

नीति की कोकिला रोती बंदी बनी, कोई सुनता नही उसे दरबार मे
ध्यान जाता नही है किसी का भी अब दुखी की दीनता भरी मनुहार मे
न वंसती हवा डोलती अब कही न कही है खुशी न ही त्यौहार है
जिस बगीचे मे खिलते थे सुंदर सुमन वहाँ हर क्यारी दीमक की भरमार है
फिर से मिट्टी अगर ये न बदली गई कैसे संभलेगी उजडी सी फुलवारियाँ
वह बगीचा जहाँ नित खिले फूल थे, आज मुरझाई सी उसकी है क्यारियाँ

शनिवार, 12 नवंबर 2011

यदि कोई प्रकाशक जो कृति को छापना चाहें , इसे देखें तो संपर्क करें ..०९४२५८०६२५२, विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्रीमद्भगवत गीता विश्व का अप्रतिम ग्रंथ है !
धार्मिक भावना के साथ साथ दिशा दर्शन हेतु सदैव पठनीय है !
जीवन दर्शन का मैनेजमेंट सिखाती है ! पर संस्कृत में है !
हममें से कितने ही हैं जो गीता पढ़ना समझना तो चाहते हैं पर संस्कृत नहीं जानते !
मेरे ८४ वर्षीय पूज्य पिता प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी संस्कृत व हिन्दी के विद्वान तो हैं ही , बहुत ही अच्छे कवि भी हैं , उन्होने महाकवि कालिदास कृत मेघदूत तथा रघुवंश के श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद किये , वे अनुवाद बहुत सराहे गये हैं . हाल ही उन्होने श्रीमद्भगवत गीता का भी श्लोकशः पद्यानुवाद पूर्ण किया . जिसे वे भगवान की कृपा ही मानते हैं .
उनका यह महान कार्य http://vikasprakashan.blogspot.com/ पर सुलभ है . रसास्वादन करें . व अपने अभिमत से सूचित करें . कृति को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाना चाहता हूं जिससे इस पद्यानुवाद का हिन्दी जानने वाले किन्तु संस्कृत न समझने वाले पाठक अधिकतम सदुपयोग कर सकें . नई पीढ़ी तक गीता उसी काव्यगत व भावगत आनन्द के साथ पहुंच सके .
प्रसन्नता होगी यदि इस लिंक का विस्तार आपके वेब पन्ने पर भी करेंगे . यदि कोई प्रकाशक जो कृति को छापना चाहें , इसे देखें तो संपर्क करें ..०९४२५८०६२५२, विवेक रंजन श्रीवास्तव

शनिवार, 24 सितंबर 2011

Goa a Dream land

Goa a Dream land

By - Prof. C.B. Shrivastava,
OB -11 MPEB Rampur Jabalpur


Of all the lands that I have seen
True Goa is the sweetest and lovely and clean
Here nature and men have joined their hands
To enrich its beauty and express its trends


Blue heaven and ocean the forest and fields
The flora and fauna, its climate and yields
Sun risings on mountains sun settings on seas
The shining sea waters, the pleasant sea breeze


Mixed culture, though modern, yet Indian in core
Fine townships, their people, their customs and mores
The Churches, the temples, their towers and domes
The markets, the lodges and holiday homes


The clusters of palm trees on hillocks and vales
The wild growth of cashew on hill tops and dales
Swift transport, thick orchards, sweet flowers and roads
All impress new visitor, who forgets are loads


Its dreamland of beauty or heaven on earth
Where mingled with breezes are pleasures and mirth
Its difficult to forget it, not easy to explain
Why dwells the desire to visit it again.

शनिवार, 9 जुलाई 2011

चार मुक्तक

चार मुक्तक

प्रो.सी.बी.श्रीवास्वत विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मंडल कालोनी रामपुर जबलपुर

जो कभी कुर्सी पे थे वे अब गुनहगारों में है,
आये दिन खबरें अनोखी उनकी अखबारों में है।
जाने क्यों इंसान का गिर गया है इतना जमीर,
बेच जो इज्जत भी , दौलत के तलबगारों में है।।

हर जगह दुनियां में सारी, बह रही बेढब हवा,
खोजने पर भी कहीं मिलती नही जिसकी दवा।
एक दिन कटता है मुश्किल से कि दे कोई नयी व्यथा,
दूसरा आ धमकता है,दिखाने कोई दबदबा।।

गुम गई इंसानियत यों आजकल इंसान में,
वेबजह आता उतर है हर बशर मैदान में।
आपसी व्यवहार में भी बढ रही मजबूरियां,
दिल जलाती हवा बहती आज हिन्दुस्तान में।।

जानता हर कोई यहां दो दिनो का वह मेहमान है,
फिर भी जाने क्यों हरेक को गजब का अभिमान है।
बढता जाता दिनों दिन टकराव का यूं सिलसिला,
आदमी खुद अपने से भी हो गया बेइमान है।।

कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं !

कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं !

प्रो.सी.बी.श्रीवास्वत विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मंडल कालोनी रामपुर जबलपुर


कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं,
दुनियां में तूफान औ कठिनाइयां है हर कहीं।
पर जहां कठिनाईयां हैं ,वहीं पर हल भी तो है,
दिल में चहिये जूझने की तड़प् ओै बस हौसला।।1।।

जोडने को सागरों को ,नहरें तक गई हैं बनाई,
चीर छाती पर्वतेां की , सुरंगे भी गई कटाई।
यह किया सब आदमी ने ही, निरंतर लगन से,
करना होता काम करने का ,सुनिश्चित फैसला।।2।।

पुल बनाये,सागरों पर,बीहडों में रास्ते,
आदमी ने किये बिरले काम,झेले हादसे।
जीत होती है परिश्रम की हमेशा एक दिन,
जारी रखना होता है श्रम का ,निरंतर सिलसिला।।3।।

सागरों के तल टटोले, नापी नभ उचांइयां,
पहाडों को तोड़ पाने हीरे खोदी खाइयां।
कैसे कैसे करिश्में ,श्रम से किये इंसान ने,
कोशिशें की रोकने की ,सुनामी का जलजला।।4।।

अपने श्रम औ समझ से नये नये ग्रहों तक भेजे यान,
समझ साहस हौसले से ही, है मानव प्राणवान।
हर असंभव को , किया संभव ,मनुज ने अपनी दम,
दिल में चाहिये तडप करने की ,औ बढचढ हौसला।।5।।

कौन सी है राह,जिस पर कांच औ कांटे नहीं,
दिल में चहिये जूझने की तड़प् ओै बस हौसला

मंगलवार, 17 मई 2011

दुनिया की देख चालें मुझको अजब सा लगता

गजल

प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "
संपर्क ओबी ११ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. ४८२००८
मोबा. ०९४२५८०६२५२, फोन ०७६१२६६२०५२


जो भी मिली सफलता मेहनत से मैने पायी
दिन रात खुद से जूझा किस्मत से की लड़ाई

जीवन की राह चलते ऐसे भी मोड़ आये
जहाँ एक तरफ कुआं था औ" उस तरफ थी खाई

कांटों भरी सड़क थी सब ओर था अंधेरा
नजरों में सिर्फ दिखता सुनसान औ" तनहाई

सब सहते बढ़ते जाना आदत सी हो गई अब
किसी से न कोई शिकायत खुद की न कोई बड़ाई

लड़ते मुसीबतों से बढ़ना ही जिंदगी है
चाहे पहाड़ टूटे , चाहे हो बाढ़ आई

आंसू कभी न टपके न ढ़ोल गये बजाये
फिर भी सफर है लम्बा मंजिल अभी न आई

दुनिया की देख चालें मुझको अजब सा लगता
बेबात की बातों में दी जाती जब बधाई

सुख में विदग्ध मिलते सौ साथ चलने वाले
मुश्किल दिनो में लेकिन कब कोन किसका भाई ?

बने भवनो को न तोड़ें बुद्धि से सोचें जरा निर्माण सारा व्यैक्तिक से ज्यादा राष्ट्रीय है संपदा

बुद्धि से सोचें जरा


प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"
संपर्क ओबी ११ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. ४८२००८
मोबा. ०९४२५८०६२५२, फोन ०७६१२६६२०५२


बने भवनो को न तोड़ें बुद्धि से सोचें जरा
निर्माण सारा व्यैक्तिक से ज्यादा राष्ट्रीय है संपदा

पेड़ हो कोई कहीं भी सबको देता आसरा
क्या उचित उसको मिटाना जो सघन सुखप्रद हरा ?

समझें कितनी मुश्किलों से खड़ी होती झोपड़ी
वर्षो की मेहनत से हो पाता कोई सपना हरा

काटकर के पेट कोई कुछ जुटा पाता है धन
ऐसे हर पैसे में होता मन का प्यारा रंग भरा

तोड़ घर परिसर निरर्थक वैद्यता कि नाम पर
व्यक्ति औ" सरकार दोनो का ही है अनहित बड़ा

नष्ट कर संपत्ति को शासन तो कुछ पाता नहीं
पर दुखी परिवार हो जाता सदा को अधमरा

ढ़हाना निर्मित भवन का कत्ल जैसा पाप है
उचित कह सकता इसे है सिर्फ कोई सिरफिरा

तोड़ना धन श्रम समय का राष्ट्रीय नुकसान है
जिससे व्यक्ति समाज रहता सदा डरा डरा

जोश में आदेश तो हो जाते शासन के मगर
जख्म पीड़ित जनो का जीवन भर न जाता भरा

नया हर निर्माण नियमित राष्ट्र का उत्कर्ष है
ध्वस्त करके सृजन का अपमान करना है बुरा

दण्ड दें उन व्यक्तियो को जो हैं मर्यादित नही
तोड़ना निर्मित घरो को है नही निर्णय सही

तोड़कर निर्माण दी जाती सजा निर्दोष को
जीने का अधिकार उनका जाता क्यो नाहक हरा

बिल्डरो की गलतियो का अर्थदण्ड उनको ही दें
लिप्त यदि अधिकारी हों तो उनसे जाया धन भरा

नागरिक को खाने रहने जीने का मौलिक अधिकार है
उन्हें दुख देना नहीं है न्याय स्वस्थ परंपरा

बने भवनो को न तोड़ें शांति से सोचें जरा
अनैतिकता तो बुरी है पर नही कोई घर बुरा

बुरा है अपराध पर अपराधी को तक देते क्षमा
उचित है अपराध पकड़ो मत करो घर से घृणा

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

मालियों को न परवाह इसकी,.........

वो बगीचा जहाॅ फूल रसगंध थी,
आज वीरान दिखती है सब क्यारियाॅं।

मालियों को न परवाह इसकी,
सभी दिख रहे कर रहे और तैयारियाॅ।

फूल खिलते जहाॅ थे हैं कांटे उगे
थी बहारे जहाॅ, आज पतझार है।

लोग कहते तो है ये बगीचा है पर
दिखता इससे किसी को नहीं प्यार है।

बदली तासीर आबो हवा इस तरह
फूल मुरझाये कांटे बढ़े हर तरफ।

ज्यों दवा की कि फिर पौध विकसे नई
और बढ़ती गई रोज बीमारियाॅं।

इक बवंडर उठा छा धुंधलका गया
धूल से भर गया पूर्ण वातावरण।

आदमी व्यस्त अपनी संजोने में है,
पड़ी फीकी मधुर भावना की किरण।

आचरण धर्म ईमान सब खो गये
हाथ गठरी संभाले हुए दाम की।

इस अंधेरे में खुद गुम गया आदमी
सब समेटे हुए व्यर्थ बेकारियाॅ।

नीति कोपल सिसकती है बंदिनी बनी
हाल बेखबर राज दरबार मे।

दे सहारा उठाये संवारे उसे
आज दिखता नहीं कोई संसार में।

जिंदगी में उमस, सांस में है कसक
सारी जनता परेषान है हाल से।

फिर से मिट्टी अगर बन न पाई नई
कैसें संभलेगी उजडी ये फुलवारियाॅं।


प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर

संतुलन चाहिए

संतुलन चाहिए

जग में अपनी औ‘ सबकी खुषी के लिये,
स्वार्थ परमार्थ में संतुलन चाहिए।

खोज पाने सही हल किसी प्रष्न का,
परिस्थिति का सही आंकलन चाहिये।

आये बढ़ते निरंतर मनुज के चरण
किंतु अपने से आगे न उठ पाया मन।

सारी दुनिया इसी से परेषान है
कई के आॅसुओ से भरे है नयन।

सारी दुनिया में दुख के शमन के लिए
पूर्व-पष्चिम के मन का मिलन चाहिए।

आज आॅगन धरा का बना है गगन
नई आषाओं से दिखते चेहरे मगन।

भूल छोटी सी ही पर किसी भी तरफ
डर है कर सकती जग की खुषी का हरण।

एक आॅगन में सम्मिलित जषन के लिये
भावनाओं का एकीकरण चाहिए।

मन की बातो का मुॅह ने किया कम कथन
ये है इस सभ्य दुनियाॅ का प्रचलित चलन।

हाथ तो सबने मिलकर मिलाये मगर
यह बताना कठिन कितने मिल पाये मन।

विश्व में मुक्त वातावरण के लिए
पारदर्षी खुला आचरण चाहिए।

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

शासक वर्ग जहाॅ नैतिक आचरणवान नहीं होगा

शासक वर्ग जहाॅ नैतिक आचरणवान नहीं होगा
जनता से नैतिकता की आषा करना है धोखा।

देष गर्त में दुराचरण के नित गिरता जाता है,
आषा के आगे तम नित गहरा घिरता जाता है।

क्या भविष्य होगा भारत का है सब ओर उदासी,
जन अषांति बन क्रांति न कूदे उष्ण रक्त की प्यासी।

अभी समय है पथ पर आओं भूले भटके राही,
स्वार्थ सिद्धि हित नहीं देष हित बनो सबल सहभागी।

नहीं चाहिए रक्त धरा को, तुम दो इसे पसीना,
सुलभ हो सके हर जन को खुद और देष हित जीना।

मानव की सभ्यता बढ़ी है नहीं स्वार्थ के बल पर,
आदि काल से इस अणुयुग तक श्रमरथ पर ही चलकर।

स्वार्थ त्याग कर जो श्रम करते वें ही कुछ पाते है,
भूमिगर्भ से हीरे, सागर से मोती लाते है।

त्याग राष्ट्र का स्वास्थ्य शक्ति है, स्वार्थ बड़ी बीमारी,
सदा स्वार्थ से ही उठती है भारी अड़चन सारी।

अगर देष को अपने है उन्नत समर्थ बनाना,
स्वार्थ, त्याग, उत्तम, चरित्र सबको होगें अपनाना।



प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

रामपुर, जबलपुर
मो.9425806252

बढते नये घपले - घोटाले

बढते नये घपले - घोटाले

सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले
धन के लालच में स्वार्थो ने, सबके मन मैले कर डाले
क्या रोक सके है बांॅध कभी, सरिता के प्रबल प्रवाहो को ?
कानून भला क्या बदल सके हैं, चंचल मन की राहो को ?
उठते हैं मन में ज्वार सदा, हर क्षण नये नये सुख पाने को
जल्दी से जल्दी बिना परिश्रम, अधिकाधिक हथियाने को
इससे ही लुक छिप कर, तोडे जाते गोदामों के ताले
सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले

केवल सच्ची धार्मिक षिक्षा, से ही संस्कारित होता मन
निस्वार्थ प्रेम की भावभूमि पर, ही मिटती मन की अनबन
घर में बचपन की षिक्षा से, होता चरित्र का संपादन
पर राजनीति ने आज किया, धार्मिक षिक्षा का निष्कासन
इससे उदण्ड हुये मन ने, की चोरी औ‘ डाके डाले
सुनने में आते आये दिन, बढते नये घपले घोटाले


जब तक हर व्यक्ति स्वतः न करेगा, सब कानूनों का पालन
तब तक अपराध न रूक सकते, कितना ही सक्षम हो शासन
मतवाले मन रूपी गज पर, अंकुष सब धर्म लगाते है
पर राजनीति उल्टा कहती, आपस में धर्म लडाते है
चल रहे लिये कई भ्रांति नई, इस युग में है दुनिया वालें
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

अनुकरण किया जाता जिनका, जब वही लूटते खाते है
तो बाॅंध सभी मर्यादाओं के, आप टूटते जाते है
धोखे बाजो से राजकोष औ‘ जन धन लुटते जाते है
अपराधी तक न्यायालय से, निर्दोष छूटते जाते है
बातें तो होती बडी-बडी, पर जाते है पर्दे डाले
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

जैसा जब चलता है समाज, वैसी बनती जन-जन की मति
काले बादल छा जाने पर, छुप जाती है रवि की भी गति
जब तक आध्यात्मिक भावों का, मन पे आलोक नहीं होगा
तब तक निष्चित है अधोपतन, सात्विक सुख भोग नहीं होगा
कुर्सी पर बैठे लोगो ने ही, हैं काले धंधे पाले
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले


झूठे आष्वासन सुन-सुन के, विष्वास उठ गये कानों के
सपनों में भटकते बरसों से, दम टूट चुके अरमानों के
कुछ ने भंडार भरें अपने, बेषर्मी से चालाकी से
पर अब भी आषा झांक रही, नयनों से अनेको बाकी के
शुभ राम राज्य की आषा में, चलते पैरो मे पडे छालें
सुनने में आते आये दिन बढते नये घपले घोटाले

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये

उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये

प्रो. सी. बी . श्रीवास्तव "विदग्ध "
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

घर एक है दीवार तो उठवाई हुई है
दिल एक था तकसीम तो करवाई हुई है
है एक नस्ल , रंग रूप खून औ" भाषा
अरमान एक , आग तो लगवाई हुई है

जब से उठी दीवार कभी चैन न आई
बस आग यहाँ खून वहाँ पड़ता सुनाई
दिल में कसक आंखो में आंसूं हैं चुभन के
दिन घुटन भरे रातें रही दर्द समाई

खुशहाली अमनोचैन के हम सब हैं तलबगार
पर जल रहे हैं दोनों एक इस पार एक उस पार
अक्सर सुनाई देती हैं जब दर्द सिसकियां
फिर जख्म हो उठते हरे रिसते हैं बार बार

मनहूस घड़ी थी वो , वे बेअक्ल बड़े थे
जब भूल सब अपना सगे दो भाई लड़े थे
तकदीर तो अब भी बंधी दोनो की उसी से
जिस देश के टुकड़ो को ले लड़ने को चले थे

जिनने लगाई आग वे अब लोग नही हैं
अब जो भी है सहने को तो बस हम ही यहीं हैं
बदले बहुत हालात वो दुनियां बदल चुकी
जीना तो हमें है जरा सोचें क्या सही है

चलता चला आया ये बे बुनियाद जो झगड़ा
बिगड़ा तो बहुत पर अब भी कुछ नहीं बिगड़ा
घर है वही धरती वही आकाश वही है
आओ ढ़हा दीवार मिलें दिल को कर बड़ा

लड़ने से किसे क्या मिला , मिलने में सार है
संसार में सुख का सही आधार प्यार है
कुदरत भी लुटाती है रहम ,प्यार सभी पर
नफरत तो है अंगार , मोहब्बत बहार है

है आदमी इंसान , न हिन्दू न मुसलमान
इन्सानियत ही एक है इंसान की पहचान
विज्ञान ,ज्ञान , धर्म , सभी की यही है चाह
इंसान में इंसानियत का उठ सके उफान

कई मुल्क तो बिगड़े बने, वह ही है आदमी
सीमायें तो बदली मगर बदली न ये जमीं
दिल को टटोलिये तो क्या आवाज है उसकी
होती नही बर्दाश्त जिसे आंख की नमी

सारे जहां से अच्छा है ये देश हमारा
हम बुल बुले हैं इसके ये गुलशन है हमारा
हर दिल को है ये याद , हर दिल में समाया
कैसे भुला सकेंगे ये इकबाल का नारा

इससे सही इंसान की नजरों से देखिये
लादे हुये नफरत के लबादे को फेंकिये
हम एक थे , फिर एक हों जीना जो सुकूं से
अपने बंटे बिखरे हुये घर को सहेजिये

उजड़े चमन की क्यारियों को फिर सहेजिये

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

प्रकृति को जो पूजते रहते सुखी है

प्रकृति को जो पूजते रहते सुखी है

प्रकृति ही परमात्मा है वास्तव में
जो सदा संसार में सबका सहारा
प्रकृति के सहयोग औ अनुदान से ही
सुरक्षित यह विष्व औ जीवन हमारा

प्रकृति की पूजा करो समझो प्रकृति को
प्रकृति के उपचार को मन में बसाओ
करो पर्यावरण की संभव सुरक्षा
वृक्ष जल आकाष पृथ्वी को बचाओ

प्रकृति से लो सीख प्रिय संबंध जोडो
जो सदा विपदाओं में भी मुस्कुराती
तपन जलती शीत भारी घोर वर्षा
में भी खुष रह जो सदा नव गीत गाती

जुड सके यदि हम प्रकृति परिवेष से तो
दुखी मन को भी सदा खुषिया मिलेगीं
जायेगें छट आये दिन बढते अंधेरे
सुवासित सुंदर सुखद कलियाॅं खिलेगीं

स्वर्ण किरणों संग नया होगा सवेरा
दिखेंगी हर ओर नई संभावनायें
उठेंगी उत्साह की मन में उमंगे
करवटे लेंगी नवल शुभकामनायें

तोड देती व्यक्ति को कठिनाईयाॅ जब
डराती है जिंदगी की समस्यायें
थका हारा मन दुखी हो सोचता है
किया श्रम पर क्या मिला किसको बतायें

प्रकृति ले तब गोद में गा थपकियाॅ दें
स्नेह से हर लेती सब मन की व्यथायें
इन्द्रधनुषी आंज के सपने नयन में
प्रेरणापद सुनाती मनहर कथायें।

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

राष्ट्र को सुदृढ बनाने एक सही प्रकल्प हो

राष्ट्र को सुदृढ बनाने एक सही प्रकल्प हो

था विदेषी जबकि शासन देष अपना एक था
प्राप्त कर स्वातंत्र्य दो देषों में नाहक बट गया।
आये दिन बटंता ही जाता नये नये प्रदेष में
दलो, भाषा, जाति, क्षेत्रों की परिधि से पट गया।

इस तरह कैसे सुरक्षित होगी सबकी एकता
हरेक मन में चाह है जब निज अलग अनुवाद की
देषवासी चाहते यदि देष की समृद्धि हो
त्यागनी होगी उन्हें यह नीति बढते स्वार्थ की।

विखण्डन की राजनीति ने है बिकाडा देष को
सबो का तो एक निष्चित ध्येय होना चाहिए
देष की हो एक भाषा एक ही संकल्प हो
राष्ट्र हित में एक सा ही सोच होना चाहिए

बदल सकता दृष्य सबके एक अविचल सोच से
सबो का यदि देष हित में स्वैच्छिक संकल्प हो
जो करें सब साथ मिलकर एक शुभ उद्देष्य से
राष्ट्र को सुदृढ बनाने एक सही प्रकल्प हो

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘

गुरुवार, 31 मार्च 2011

चिंतन का अर्थ है किसी एक विषय पर गंभीरता से गहन सोच विचार करना

चिंतन



द्वारा प्रो. सी. बी . श्रीवास्तव "विदग्ध "
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

चिंतन का अर्थ है किसी एक विषय पर गंभीरता से गहन सोच विचार करना . मनुष्य जो भी छोटे बड़े कार्य करता है उसके पहले उसे सोचना विचारना अवश्य पड़ता है , क्योकि प्रत्येक कार्य के भले बुरे कुछ न कुछ परिणाम अवश्य होते हैं . भले उद्देश्य को ध्यान में रखकर जो कार्य किये जाते हैं उनके परिणाम अच्छे होते हैं , तथा कर्ता को भी उनका हितलाभ होता है , किन्तु जो कार्य इसके विपरीत किये जाते हैं उनका परिणाम अहितकारी होता है और कर्ता के लिये अपयशकारी होता है . अतः नीति नियम यही है कि हर काम को करने से पहले उसकी रीति और संभावित परिणाम को ध्यान में रखकर विचार किया जावे . विचार से ही योजना बनती है , और योजना बद्ध तरीके से ही कार्य सुसंपन्न होता है . ऐसा कार्य वांछित फलदायी होता है . चोर , डाकू , लुटेरे तक सोच विचार कर दुष्टता के अनैतिक कार्य करते हैं , समझदार अन्य लोगो की तो बात ही क्या है .

चिंतन या सोचविचार का जीवन में बड़ा महत्व है . विचार से ही कर्म को जन्म मिलता है . कर्म ही परिणाम देते हैं . अतः जो जैसा काम करता है वैसा ही फल पाता है . इसीलिये कहा गया है " जो जैसी करनी करे , सो वैसो फल पाये " . परन्तु फिर भी दैनिक जीवन में बहुत से लोग विचारो को जो महत्व देना चाहिये वह नही देते . इसी से बहुत सी बातें बिगड़ती हैं . आपसी बैर भाव , विद्वेष और लड़ाई झगड़े बिना विचार के सहसा किये गये कार्यो के ही दुष्परिणाम हैं . जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है , और उसका प्रभाव क्षेत्र जितना विशाल होता है उसके द्वारा किये गये कार्यो का प्रभाव भी उतने ही बड़े क्षेत्र पर पड़ता है . उसके कार्यो का परिणाम एक दो व्यक्ति या परिवार जनो को ही नही वरन आने वाली पीढ़ीयो तक को सदियो तक भोगना पड़ता है . हमारे देश में काश्मीर की समस्या शायद ऐसे ही बिना गंभीर चिंतन के उठाये गये कदम का दुखदायी परिणाम है .

कर्म ही मनुष्य के भाग्य का निर्माता है . व्यक्ति जैसा सोचता है , वैसा ही करता है . जो जैसा करता है वैसा ही बनता है और वैसा ही फल पाता है , जो उसके भविष्य को बनाता या बिगाड़ता है . इसीलिये कहा है , "बिना विचारे जो करे सो पीछे पछताये " . एक क्षण की बिना विचारे किये गये कार्य के द्वारा घटित की घटना न जाने कितनो के धन जन की हानि कर देती है . छोटी सी असावधानी बड़ी बड़ी दुर्घटनाओ को जन्म दे देती है और अनेको को भावी पीढ़ीयो के विनाश के लिये पछताते रहने को विवश कर जाती है .

इसलिये विचार या चिंतन को उचित महत्व दिया जाना चाहिये . सही सोच विचार से किये जाने वाले कार्यो से ही हितकर परिणामो की आशा की जा सकती है . तभी व्यक्ति , परिवार , समाज और राष्ट्र का उद्धार संभव हो सकता है . विचार ही समाज या देश के विकास या विनाश की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं . इतिहास इसका प्रमाण है . एक नही अनेक उदाहरण हैं जहाँ शासक के उचित या अनुचित विचारो ने संबंधित देश के भविष्य को नष्ट किया या या सजाया सवांरा है . भारत के इतिहास से सम्राट अशोक इसका प्रमुख और सुस्पष्ट उदाहरण है , जिसके एक चिंतन ने कलिंग प्रदेश में प्रचण्ड युद्ध और विनाश के ताण्डव को जन्म दिया और युद्ध की विभीषिका से तंग आकर जब उसने अपने कृत्यो पर पुनर्विचार किया तो उसके नये चिंतन ने उसे शांति का अग्रदूत बनाकर बौद्ध धर्म का अनुशासित महान अप्रतिम प्रचारक बना दिया .

"भारतवर्ष आश्चार्यकारी , आध्यात्मिक देश है , वहाँ के निवासी वीर और सत्यवादी हैं , यदि तुम कभी वहाँ जाओ तो वहाँ के किसी संत से जरूर मिलना

चिंतन



द्वारा प्रो. सी. बी . श्रीवास्तव "विदग्ध "
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर


यूनान का बादशाह सिकंदर बड़ा महत्वाकांक्षी था . वह समस्त संसार को जीतकर विश्वविजेता बनना चाहता था . इसी महत्वाकांक्षा को लेकर वह अपने देश से निकला . मार्ग में अनेको देशो को जीतता हुआ वह भारत में आया . उसने पंचनद प्रदेश में युद्ध कर उसे जीत लिया और अपनी सेना को आदेश दिया कि पराजित राजा पुरु को बंदी बनाकर उसके सम्मुख लाया जावे . राजा पुरु को सिकंदर के सामने लाया गया . सिकंदर ने पुरु से पूछा , " तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जावे ? " पुरु ने निर्भीक स्वर में उत्तर दिया , " वैसा ही जैसा एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिये ". पुरु के निर्भीक उत्तर ने सिकंदर को बहुत प्रभावित किया .उसने पुरू का समस्त राज्य उसे वापस कर दिया तथा पुरु की वीरता एवं निर्भीकता की सराहना भी की . सिकंदर को अपने गुरू अरस्तु का उपदेश याद हो आया गुरू ने कहा था कि "भारतवर्ष आश्चार्यकारी , आध्यात्मिक देश है , वहाँ के निवासी वीर और सत्यवादी हैं , यदि तुम कभी वहाँ जाओ तो वहाँ के किसी संत से जरूर मिलना जो प्रायः सारा जीवन चिंतन मनन और ईश्वर की भक्ति में बस्ती से दूर किसी नदी किनारे एकांत में बिताते हैं .

सिकन्दर ने विजय तो पा ली थी पर उसकी सेना भारत के गरम मौसम से उब गई थी और वापस स्वदेश लौट जाना चाहती थी ,ऐसी परिस्थिति में सिकंदर वापस लौट जाने को विवश हो गया . वापस लौटने से पहले वह अपने गुरू अरस्तु के आदेश के अनुरूप भारत के किसी संत , फकीर या आध्यात्मिक महापुरुष से मिलना चाहता था . एक ऐसे ही संत का परिचय पाकर वह उनसे मिलने गया . संत अपनी कुटिया में शांत भाव से ध्यान मग्न थे . सामने पहुंचकर सिकंदर ने कहा " मैं विश्वविजय पर निकला सिकंदर महान हूं . " यहां भारत को जीता है , आपको प्रणाम है . साधु महात्मा ने कोई उत्तर नही दिया . सिकंदर ने पुनः अभिमान से उन्हें नमस्कार कहा , किन्तु साधु की कोई प्रतिक्रया न पाकर सिकंदर गुस्से से स्वयं को फिर महान बताते हुये संत को अपमानित व तिरस्कृत करते हुये चिल्लाया " तू कैसा संत है ? कुछ बोलता ही नही ! "

यह सुनकर संत ने शांत स्वर में कहा " क्या बोलूं ? सुन रहा हूं कि तू स्वयं को महान और विश्वविजेता बता रहा है . मेरी दृष्टि में तो तू वैसा ही मालूम होता है जैसे कोई पागल कुत्ता ,जो अनायास भौकता है और दूसरे निर्दोष प्राणियो पर हमला करके उन्हें अकारण ही नुकसान पहुंचाता है या मार डालता है . तूने अनेको देशो के निर्दोष लोगो को बिनावजह मार डाला है , देशो को उजाड़ दिया है , बच्चो और स्त्रियो को बेसहारा करके उन्हें रोने बिलखने के लिये छोड़ कर भारी अपराध किया है . जो अकारण दूसरो के प्राण लेता है वह विजेता कैसे ? वह तो ईश्वर की दृष्टि में अपराधी है , मूर्ख है . हम तो उसे विजेता मानते हैं जो स्वयं अपने मन पर विजय पा लेता है . मन की बुराईयों को जीतता है , दूसरो के दुख दर्द मिटाकर उन्हें प्रसन्न रखने के लिये संकल्प कर सदा भलाई के कार्य करता है . महान विजेता वह होता है जो औरो पर नही स्वयं अपने आप पर विजय पा लेता है . बुरे काम करना छोड़कर सदाचारी व परहितकारी जीवन जीता है . ऐसा ही व्यक्ति ईश्वर को भी प्रिय होता है . अत्याचारी को कोई पसंद नही करता . सिकंदर संत की वाणी से जैसे सोते से जाग गया , और आत्म निरीक्षण में लगकर स्वतः को ईश्वर का अपराधी समझकर अपने व्यवहार में सुधार करने के विचार करने लगा .

शनिवार, 19 मार्च 2011

होली के मुक्तक

होली के मुक्तक

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
ओ.बी. 11 एम.पी.ई.बी. कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.


गांव गली , घर द्वार रंगे , वन बाग रंगे , सब लोग रंगाये
रंग तरंग में भींग गये तन , डूब गये मन प्रेम बसाये

भाल औ" गाल गुलाल से लाल , औ" नयनों में रंग के बादल छाये
होली की भोली ठिठोली में रोली उड़ी , हर द्वार पै फागुन आये


आया बसंत प्रीति होली मिलने चली
मादक बयार मोहती हँसती कली कली

चिड़ियां चहक रही हैं मचलती हैं तितलियां
भौंरे भी गुनगुना रहे फिरते गली गली


मन में उठी उमंग है , तन में तरंग है
मौसम की खुश हवा , का जमाने पै रंग है

निकले हैं सब खुमार में मिलने जहाँ तहाँ
मन मन से मिल रहे हैं ये ऐसा प्रसंग है

होली के रंग संग ,ले बादल गुलाल के
सपने हजार रेशमी नैनो में पाल के

आये हैं ले के नेह की मुस्कान नशीली
जायेंगे तुम से मिलके चटक रंग डाल के

डोरे रंगीली प्रीति के, आंखों में डाल के
आना पड़ेगा सामने ,खुद को संभाल के

मौसम की बात मान के, अपने लिये हुजूर
जाओगे कहाँ बच के , मोहब्बत को टाल के

होलिका को ध्वस्त कर पूजा करें प्रहलाद की

होली

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
ओ.बी. 11 एम.पी.ई.बी. कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.


कट गये वन , घट गये वन ,दुख में है हर एक मन
हरे जंगल देखने को ,अब तरसते हैं नयन
उजाड़ो मत , नये उगाओ वृक्ष हर परिवेश में
देश हित में है जरूरी , मत करो होली दहन


हर्ष हो , उत्साह हो , हो फाग रंग गुलाल से
नेह बरसे , प्रीति सरसे , किसी से न मलाल हो
लकड़ी अब मिलती नहीं , लोगों को अब शव दाह को
बंद हो लकड़ी जला होली मनाने का चलन

होलिका को ध्वस्त कर पूजा करें प्रहलाद की
चेतना नव सृजन की हो वृद्धि हो आल्हाद की
धरा हो फिर से हरी सबके समृद्ध प्रयास से
सुखी हो संसार सबका प्रकृति की फिर पा शरण

हटा के ज्वाला विनाशी , बढ़ायें मन की चमक
आपसी सद्भाव की हर घर गली निखरे झलक
होलिका तो जली सदियो विजय हुई प्रल्हाद की
पर्व अब प्रल्हाद का हो , हो नया पर्यावरण .

रविवार, 13 मार्च 2011

सतत सुखी जीवन जीने का बड़ा सरल सिद्धांत है ..

सतत सुखी जीवन जीने का बड़ा सरल सिद्धांत है ..

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
ओ.बी. 11 एम.पी.ई.बी. कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र

मानव साधन , समय नियंता , संचालक भगवान है
ईश्वर की आज्ञा पालन में ही मानव कल्याण है

सद्कर्मो के लिये भावना एक बड़ा आधार है
जिसे समय दे सही प्रेरणा वही सही धनवान है

जीवन सागर में लहरों के प्रबल थपेड़े हैं प्रतिपल
जो उनको सह तैर सकें , सब काम उन्हें आसान हैं

पर जो हैं संपूर्ण समर्पित मन से सेवा कार्य में
उन्हें सफलता का हर क्षण , प्रभु का पावन वरदान है

राह कोई हो , मौसम जो भी , चलना तो अनिवार्य है
कदम निडर हों ढ़ृड़ निश्चय हो , तो न कोई व्यवधान है

गुण अवगुण युग युग से दोनो रहते आये साथ हैं
ये ऐसे ही सदा रहेंगे यह मेरा अनुमान है

पर जो सदाचार का सेवक करता पर उपकार है
यह जग करता आया नित उसका गुणगान है

सतत सुखी जीवन जीने का बड़ा सरल सिद्धांत है
दूर दिखावों से रहता ही नित सच्चा इंसान है

जो विदग्ध निश्छल जीते हैं सबके प्रति सद्भाव रख
प्रकृति और परमात्मा भी उनका करते सम्मान हैं

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

Don’t complain of times and tides

Don’t complain of times and tides

Prof C B Shrivastava
OB 11 , MPSEB , Rampur Jabalpur , 482008.
0761 2662052

This world is alluring , but not pious
Darkness dwells in bright disguise
Those who see it , but can’t not feel
Are misled , they are not wise

Almost all that is seen often
Is the projection of one’s mind.
Time runs fast and moves on forward
Only the tales are left behind

Pains and pleasures all that we feel
are the short lived dreams of life
on the way each day are faces
altogether a new strife

constraint silent aim full hard work
is desired for a ride
bright spectrum should be in view
but the target must not slide

happy is he whose wants are limited
who has curbed his wild desires
and is pleased and perfect peaceful
with poor meals and plain attires

Don’t complain of times and tides
Those present their sudden alights
All experienced people say that
Keep mind cool and reach the heights